SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की तरह दूना-दूना होता गया है। अर्थात् त्रीन्द्रिय के 128 चतुरिन्द्रिय के 256 और असंज्ञीपंचेन्द्रिय के रसना का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र 512 धनुष प्रमाण हैं। इसी प्रकार घ्राण और श्रोत्र का विषय क्षेत्र भी समझ लेना चाहिये। अर्थात् घ्राणेन्द्रिय का विषय क्षेत्र त्रीन्द्रिय के 100, चतुरिन्द्रिय के 200, और असंज्ञी. पंचेन्द्रिय के 400 धनुष प्रमाण है। चक्षुन्द्रिय का विषय क्षेत्र चतुरिन्द्रिय के 2954 और असंज्ञी पंचेन्द्रिय के 5908 योजन है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय के श्रोत्र का विषय 8000 धनुष है। संज्ञी जीव की इन्द्रियों का विषय क्षेत्र सण्णिस्स वार सोदे, तिण्हंणव जोयणाणि चक्खुस्स। सत्तेतालसहस्सा, बेसदतेसट्ठिमिदिरेया॥(169) संज्ञी जीव के स्पर्शन, रसना, घ्राण इन तीन इन्द्रियों में से प्रत्येक का विषयभूत क्षेत्र नौ-नौ योजन है। और श्रोत्रेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र बारह योजन है। तथा चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र संतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन से कुछ अधिक है। समनस्क का स्वरूप संज्ञिन: समनस्काः ।(24) The rational (beings are also called-) visit- i.e. one who has got sanjna-mind here. मनवाले जीव संज्ञी होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय संज्ञी जीव में से पंचेन्द्रिय सैनी जीव अधिक विकसित जीव है क्योंकि संज्ञी जीव मन सहित होता है। मन दो प्रकार के है- (1) द्रव्यमन (2) भावमन पुद्गलविपाकी अंगोपांग नाम कर्म के उदय से द्रव्यमन होता है तथा वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले की आत्मा की विशुद्धि को भावमन कहतें है। यह मन जिन जीवों के पाया जाता है वे समनस्क है और उन्हे ही संज्ञी कहते हैं। परिशेष न्याय से यह सिद्ध 148 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy