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(1) ज्ञानचतुष्क- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्ययज्ञान ये चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं। वीर्यान्तराय और मतिश्रुतज्ञानावरण के सर्वघाति स्पर्धकों का उदय, क्षय एवं उन्हीं आगामी उदय में आने वाले स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम होने पर तथा देशघातिस्पर्धकों का उदय होने पर मतिज्ञान, श्रुतज्ञान होता है। देशघाति स्पर्धकों के अनुभाग तारतम्य से क्षायोपशमिक ज्ञान में भेद होता है- जैसे किसी का मति ज्ञान अधिक और किसी का कम होता है। इस प्रकार अवधिज्ञान और मन: पर्यय के भी स्वावरण क्षयोपशम के भेद से क्षायोपशमिकपना जानना चाहिये। (2) अज्ञानत्रय- अज्ञान तीन प्रकार का है- मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगावधिज्ञान। इनके भी पूर्व के समान क्षायोपशमिकपना ही समझना चाहिये। इनमें ज्ञान एवं अज्ञान का विज्ञान मिथ्यात्व कर्म के उदय और अनुदय से होता है; अर्थात् मिथ्यात्वकर्म के उदय से ये तीनों ज्ञान अज्ञान कहलाते हैं और सम्यग्दर्शन के कारण यही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं। (3) दर्शनत्रय- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीन दर्शन अपने-अपने आवरण के क्षयोपशम से होते हैं। (4) पंचलब्धियाँ- दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ भी अपने-अपने आवरण के क्षयोपशम से होती है। जैसे- दानान्तरायादि कर्म के सर्वघाति स्पर्धकों का क्षयोपशम होने पर और देशघाति स्पर्धकों के उदय का सद्भाव होने पर ये पाँच लब्धियाँ होती हैं। (5) सम्यक्त्व- सम्यक्त्व शब्द से यहाँ क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ग्रहण करना चाहिये। अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व और सम्यङ्-मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों का उदायाभावी क्षय और आगामी काल में उदय में आने वाले इन्हीं के स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम तथा सम्यक्त्व प्रकृति देशघातिस्पर्धकों का उदय होने पर जो तत्वार्थश्रद्धान होता है- वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है। यह वेदक भी कहलाता है। (6) क्षायोपशमिक चारित्र- अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान रूप बारह कषायों के उदयभावी क्षय और आगामी काल में उदय में आने वाले इनके सर्वघाति स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम तथा संज्वलन कषाय
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