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________________ सत्य को जानते हैं उन सम्पूर्ण सत्य को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं क्योंकि अनंत ज्ञान से जानने के बाद जो उसे अभिव्यक्त करने वाली भाषा है वह सीमित है। गोम्मटसार जीवकाण्ड में कहा भी है पण्णवणिज्जाभावा, अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुदणिबद्धो॥[334] अनभिलप्य पदार्थों के अनन्तवें भाग प्रमाण प्रज्ञापनीय पदार्थ होते हैं और प्रज्ञापनीय पदार्थों के अनन्तवें भाग प्रमाण श्रुत में निबद्ध हैं। केवलज्ञानी सर्वज्ञ होने से केवलज्ञान के द्वारा जो जानते है उसकी अभिव्यक्ति दिव्यध्वनि के माध्यम से करते एवं दिव्यध्वनि की शक्ति सीमित होने से जितना जानते हैं उसका अनन्तवें भाव प्ररूपणा (अभिव्यक्ति, कथन, उपदेश) करते हैं। इसलिये जितना जानते हैं उसके अनन्तवें भाग प्ररूपण करते हैं अवशेष भाग का कथन नहीं होता है। अरिहंत भगवान जो कथन करते है उसके अनन्तवें भाग गणधर झेलते (ग्रहण करते) हैं। गणधर जितना ग्रहण करते हैं उसके अनन्तवें भाग श्रुत में निबद्ध (लिपिबद्ध, निरुपित, श्रुतरचना) करते हैं। इससे सिद्ध होता है जो पूर्ण द्वादशांग श्रुत है वह भी पूर्ण ज्ञान स्वरूप नहीं है परन्तु पूर्ण श्रुत में सम्पूर्णद्रव्यों का संक्षिप्त वर्णन अवश्य है अथवा केवलज्ञान अनंत प्रत्यक्ष ज्ञान है एवं श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान है। कहा भी है- . सुदकेवलं च णाणं, दोण्णि वि सरिसाणि होंति बोहादो। सुदणाणं तु परोक्खं, पच्चक्खं केवलं णाणं॥[369] गो.सार .. ज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान तथा केवलज्ञान दोनों ही सदृश हैं। परन्तु दोनों में अन्तर यही है कि श्रुतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। . जिस तरह श्रुतज्ञान सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों को जानता है उस ही तरह केवलज्ञान भी सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों को जानता है। विशेषता इतनी ही है कि श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है इसलिये परोक्ष-अविशद अस्पष्ट है। इसकी अमूर्त पदार्थों में और उनकी अर्थ पर्यायों तथा दूसरे सूक्ष्म अंशों में स्पष्ट रूप से प्रवृत्ति नहीं होती। किन्तु केवलज्ञान निरावरण होने के 7 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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