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________________ दुगतिगभवा हु अवरं सत्तट्ठभवा हवंति उक्कस्सं । अडणवभवा हु अवर मसंखेज्जं विउलउक्कस्सं । (457) काल की अपेक्षा से ऋजुमति का विषय भूत जघन्य काल दो-तीन काल भव और उत्कृष्ट सात आठ भव तथा विपुलमति का जघन्य आठ नौ भव और उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें में भाग प्रमाण है। आवलिअसंखभागं अवरं च वरं च वरमसंखगुणं । तत्तो असंखगुणिदं असंखलोगं तु विउलमदी । (458) भाव की अपेक्षा से ऋजुमति का जघन्य तथा उत्कृष्ट प्रमाण असंख्यातगुणा है । विपुलमति का जघन्यप्रमाण ऋजुमति के उत्कृष्ट विषय से असंख्यातगुणा है, और उत्कृष्ट विषय असंख्यात लोक प्रमाण है। अवधिज्ञान और मनः पर्यय ज्ञान में विशेषता विशुद्धि क्षेत्र स्वामिविषयेभ्योऽवधि मनः पर्ययोय: । ( 25 ) Between Visual and Mential knowledge the (Telepathy) differences relate to their purity, place person of inherence and subject-matter. विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय की अपेक्षा अवधिज्ञान और मन: पर्ययज्ञान में भेद हैं। अवधिज्ञान एवम् मनः पर्ययज्ञान दोनों देशप्रत्यक्ष होते हुए भी दोनों में कुछ अन्तर पाया जाता है। परिणामों की निर्मलता को विशुद्धि कहते हैं। ज्ञाता (जानने वाला) जहाँ के क्षेत्र को जानता है उसे क्षेत्र कहते हैं । जानने वाले को स्वामी कहते हैं। ज्ञाता जिसको जानता है उसे विषय कहते हैं। 94 विशुद्धि - दोनों ज्ञानों में अवधिज्ञान से मन:पर्ययज्ञान विशुद्धतर है क्यों कि मन:पर्ययज्ञान का विषय सूक्ष्म है। अवधिज्ञान, जिस रूपी द्रव्य को जानता है उनके अनन्त वें भाग रूपी द्रव्य को मन:पर्ययज्ञान जानता है । सर्वावधिज्ञान को अनन्तवां भाग मनः पर्यय ज्ञान जानता है। क्षेत्र - अवधिज्ञान की उत्पत्ति का क्षेत्र समस्त त्रस नाड़ी है। किन्तु मनः पर्यय ज्ञान मनुष्य लोक में ही उत्पन्न होने से मनुष्य लोक, अढाई द्वीप अथवा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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