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________________ और इस ऋजुमति के विषय के अनन्त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है वह विपुलमति का विषय है। अनन्त के अनन्त भेद हैं अत: ये उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय बन जाते हैं। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा विशुद्धि कही। भाव की अपेक्षा विशुद्धि उत्तरोत्तर सूक्ष्म द्रव्य को विषय करनेवाला होने से ही जान लेनी चाहिए क्योंकि इनका उत्तरोत्तर प्रकृष्ट क्षयोपशम पाया जाता है; इसलिए ऋजुमति से विपुलमति में विशुद्धि अधिक होती है। 2. अप्रतिपात- अप्रतिपात की अपेक्षा भी विपलमति विशिष्ट है: क्योंकि इसके स्वामियों के प्रवर्धमान चारित्र पाया जाता है। परन्तु ऋजुमति प्रतिपाती है, क्योंकि इसके स्वामियों के कषाय के उदय से घटता हुआ चारित्र पाया जाता है। गोम्मट्टसार में भी इसका वर्णन निम्न प्रकार पाया जाता हैगाउपपुधत्तमवरं उक्कस्सं होदि जायेणपुधत्तं। . विउलमदिस्सं य अवरं तस्स पुधत्तं वरं खु गरलोयं॥(455) ऋजुमति का जघन्य क्षेत्र दो तीन कोस और उत्कृष्ट सात आठ योजन है। विपुलमतिका जघन्य क्षेत्र आठ नव योजन तथा उत्कृष्ट मनुष्यलोक प्रमाण णरलोएत्ति य वयणं विक्खंभणियामयं ण वट्टस्स। जम्हा . तग्घणपदरं मणपज्जवखेत्तमुद्दिटुं(456) . मन: पर्यय के उत्कृष्ट क्षेत्रका प्रमाण जो नरलोकप्रमाण कहा है सो नरलोक इस शब्द से मनुष्य लोक विष्कम्भ ग्रहण करना चाहिये लोक वृत्त ; क्योंकि दूसरे के द्वारा चिंतित और मानुषोत्तर पर्वत के बाहर स्थित पदार्थ को भी विपुलमति जानता है ; क्योंकि मन: पर्ययज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र समचतुरस्त्र घनप्रतररूप पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है। 93 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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