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________________ वाके, इस पर भी सात ऋद्धियों में से कम से कम किसी भी एक ऋद्धि को धारण करने वाले के, ऋद्धि प्राप्त में भी वर्धमान तथा विशिष्ट चारित्र को धारण करने वाले के ही यह मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न होता है। इंदियणोइंदियजोगादिं पेक्खित्तु उजुमदी होदि । णिरवेक्खिय विउलमदी, ओहिं वा होदि णियमेव ॥ (446) अपने तथा परके स्पर्शनादि इन्द्रिय और मन तथा मनोयोग, काययोग, वचनयोग की अपेक्षा से ऋजुमति मनः पर्ययज्ञान उत्पन्न होता है, अर्थात् वर्तमान में विचार प्राप्त स्पर्शनादि के विषयों को ऋजुमति जानता है । किन्तु विपुलमति अवधि की तरह इनकी अपेक्षा के बिना ही नियम से होता है । पडिवादी पुण पढमा अप्पडिवादी हु होदि विदिया हु । सुध्दो पढमो बोहो सुध्दतरो विदियबोहो दु ॥ (447) ऋजुमति प्रतिपाती है; क्योंकि ऋजुमति वाला उपशमक तथा क्षपक दोनों श्रेणियों पर चढ़ता है। उसमें यद्यपि क्षपक की अपेक्षा ऋजुमति वाले का पतन नहीं होता; तथापि उपशम श्रेणि की अपेक्षा चारित्र मोहनीय कर्म का उद्रेक हो आने के कारण कदाचित् उसका पतन भी सम्भव है । विपुलमति सर्वथा अप्रतिपाती: है। तथा ऋजुमति शुध्द है और विपुलमति इससे भी शुध्दतम होता है अर्थात् दोनों में विपुलमति की विशुद्धि प्रतिपक्षी कर्म के क्षयोपशम विशेष के कारण अधिक है। परमणसि टिठयमट्ठ, ईहामदिणा उजुटिठयं पच्छा पच्चक्खेण य, ऊजुमदिणा जाणदे 448 ऋजुमति वाला दूसरे के मन में सरलता के साथ स्थित पदार्थ को पहले हामतिज्ञान के द्वारा जानता है, पीछे प्रत्यक्ष रूप से जानता है । लहिय । णियमा ॥ चिंतियमचिंतियं वा, अद्धं चिंतियमणेय भेय ओहिं वा विउलमदी, लहिऊण विजाणए Jain Education International For Personal & Private Use Only गयं । पच्छा ॥ (449) 91 www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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