________________
- सव्वंगअंगसंभवचिण्हादुप्पज्जदे जहा । ओही।
मणपज्जवं च दव्वमणादो उप्पज्जदे णियमा॥(442)
जिस प्रकार अवधिज्ञान समस्त अंग से अथवा शरीर में होने वाले शंखादि शुभ चिन्हों से ज्ञान उत्पन्न होता है उसी तरह मन:पर्ययज्ञान जहाँ पर द्रव्यमन होता है उन्हीं प्रदेशों से उत्पन्न होता है।
जहाँ पर द्रव्यमन होता है उस स्थान पर जो आत्मा के प्रदेश है वहीं से मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न होता है। किन्तु भवप्रत्यय अवधिज्ञान सर्व अंग से होता हैं और गुण प्रत्यय अवधिज्ञान शंखादिक चिन्हों के स्थान से ही होता है। साथ ही इन चिन्हों का स्थान द्रव्यमान की तरह निश्चित नहीं है। यह उत्पत्ति स्थान की अपेक्षा अवधि और मन:पर्ययज्ञान में अंतर है।
द्रव्यमन का स्थान और आकार हिदि होदि हु दव्वमणं, वियसियअट्ठच्छदारविंदं वा। अंगोबगुदयादो, मणबग्गणखंधदो णियमा॥(443)
अंगोपांग नामकर्म के उदय से मनोवर्गणा के स्कन्धों के द्वारा हृदय स्थान में नियम से विकसित आठ पांखड़ी के कमल के आकार में द्रव्यमन उत्पन्न होता है।
णोइंदियं ति सणणा, तस्स हवे सेसइंदियाणं वा।
वत्तत्ताभावादो, मणमणपज्जं च तत्थ हवे॥(444) इस द्रव्यमन की नोइन्द्रिय संज्ञा भी है, क्योंकि दूसरी इन्द्रियों की तरह यह व्यक्त नहीं है। इस द्रव्यमन के निमित्त से भावमन तथा मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न होता है।
मन: पर्ययज्ञान का स्वामी मणपज्जवं च णाणं, सत्तसु विरदेसु सत्तइड्ढीणं। एगादिजुदेसु हवे, वड्ढतविसिट्ठचरणेसु॥(445) प्रमत्तादि क्षीणकषायपर्यन्त सात गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान
90
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org