________________
* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ७७ *
के द्वारा संवर-निर्जरा धर्म के पालन से कर्ममुक्त होने के बजाय नये-नये कर्म बाँध लेता है, आर्तध्यान करते हुए भोगने से कथंचित् अकामनिर्जरा कर ले, किन्तु उन प्राचीन कर्मों को समूल नष्ट नहीं कर पाता है।' इसलिए शास्त्रों में मुमुक्षुसाधक के लिए २२ प्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों के आ पड़ने पर स्वीकृत धर्मपथ से च्युत न होने और कर्मनिर्जरा करने के हेतु उन्हें समभावपूर्वक सहने-भोगने का निर्देश किया है। कर्मविज्ञान ने आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से कष्ट-सहिष्णुता, तितिक्षा या सहनशीलता को कर्ममुक्ति का स्रोत बताया है। परीषह-सहन से कष्ट-सहिष्णुता, आत्म-क्षमता, कर्मनिर्जरा, सम्यक्संवर, शारीरिक-मानसिक स्वस्थता, समता की क्षमता आदि गुण प्राप्त होते हैं। आध्यात्मिक शक्तियों का विकास होता है। संवर, निर्जरा और मोक्ष का असाधारण कारण : चारित्र
सम्यक्चारित्र सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष के लिए असाधारण कारण है। सम्यक्चारित्र में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्तप, तीनों का समावेश हो सकता है। पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करना हो या आते हुए कर्मों का निरोध करना हो, दोनों के लिए सम्यक्चारित्र अनिवार्य है। पंचमहाव्रत, पंचसमिति, तीन गुप्ति का पालन-आचरण करना व्यवहारचारित्र है, जिसमें अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति दोनों है। निश्चयचारित्र का- लक्षण है-स्वरूप में रमण। ऐसा चारित्र भी दो प्रकार का है-सरागचारित्र और वीतरागचारित्र। जिस प्रकार निश्चयचारित्र साध्य है, व्यवहारचारित्र साधन है, उसी प्रकार वीतरागतासमतारूपी या ज्ञाता-द्रष्टाभाव में स्थिरतारूपी वीतरागचारित्र साध्य है; तथा प्रधानरूप से वही उपादेय है। जबकि नीचे की भूमिका में सरागचारित्र कथंचित् उपादेय होता है। अर्थात् सम्यक्चारित्र की साधना के समय प्रत्येक प्रवृत्ति, व्यक्ति या परिस्थिति के समय राग-द्वेष-कषाय-मोहादि विकारों के प्रवाह में न बहे, केवल ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहे, यानी आत्म-भावों में ही स्थित रहे तो बहुत शीघ्र कर्मों की निर्जरा कर सकता है। इसी दृष्टि से 'नयचक्रवृत्ति' में समता, वीतरागता, माध्यस्थ्य, शुद्धोपयोग, स्वभाव की आराधना और धर्म, ये चारित्र के पर्यायवाची कहे गए हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार सम्यग्दृष्टि से लेकर तेरहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग (जिन) के परिणामों की उत्तरोत्तर विशुद्धता के कारण प्रति समय असंख्यातगुणी-असंख्यातगुणी निर्जरा होती है, बशर्ते कि उनकी दृष्टि में आत्म-स्वरूप का लक्ष्य हो तथा निश्चयचारित्र और व्यवहारचारित्र परस्पर सापेक्ष हों। मोहनीय कर्म की २८ ही प्रकृतियों के सर्वथा क्षय होने से चारित्र क्षायिक, इनके उपशम से औपशमिक तथा
आदि १२ के उदयाभावी क्षय होने से, इन्हीं के उपशम से तथा संज्वलन के कषायचतुष्क के यथासम्भव उदय में आने पर आत्मा का निवृत्तिरूप परिणाम क्षायोपशमिकचारित्र है। इसी चारित्र के सामायिक, छेदोपस्थापनिक, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पदाय और यथाख्यात, ये पाँच भेद मुख्य हैं। कर्मविज्ञान ने इन सबके स्वरूप और विधि का सम्यक् निरूपण किया है। सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार
जन्मान्ध व्यक्ति पूर्वकृत शुभ कर्मोदयवश अकस्मात् दिखने के आनन्द की तरह किसी कुष्ट रोगी को शीतोपचार से रोगोपशमन हो जाने से जैसी प्रसन्नता होती है, वैसे ही अनादि-मिथ्यात्व-रोग से पीड़ित जीव को करणत्रयरूप महौषध से मिथ्यात्व के नष्ट हो जाने से सम्यक्त्व-प्राप्ति का पारमार्थिक परम आनन्द प्राप्त होता है। वस्तुतः सम्यक्त्व-प्राप्ति से मोक्ष-प्राप्ति की गारंटी तथा भवसंख्या की निश्चिति हो जाती है। अर्थात् सम्यक्त्व-प्राप्ति से मोक्ष-यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। अतः सम्यक्त्व मोक्ष का द्वार, आधार और अणुव्रत आदि का मूल है। सम्यक्त्व के बिना कोई भी व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान आदि मोक्ष के कारण नहीं हो सकते। सम्यक्त्व-संवर के साधक के लिए सर्वप्रथम निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से सम्यक्त्व के स्वरूप, सम्यग्दर्शन की सुरक्षा, स्थिरता, शुद्धि, स्थिति और वृद्धि तथा सुख-दुःख में समभाव और सन्तुलन रखने का कर्मविज्ञान ने भलीभाँति स्पष्टीकरण किया है। निश्चय सम्यग्दर्शन होने पर ही व्यवहार सम्यग्दर्शन सफल होता है। अन्त में, निश्चय सम्यक्त्व-संवर की तथा व्यवहार-सम्यक्त्व की साधना में क्या-क्या
अनन्तानबा गतान्या जादि.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org