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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ७३ *
पंचकर्मबन्ध कारणों से बचना है, यलाचारपूर्वक प्रमादरहित होकर प्राणिपीड़ा न हो, इस भाव से युक्त होकर प्रवृत्ति करना है। आगे कर्मविज्ञान ने पाँचों ही समितियों के स्वरूप, प्रकार, विधि और शुद्धि एवं अतिचार से बचकर यत्नाचार का ध्यान रखने का विशद निर्देश दिया है। संवर और निर्जरा का स्रोत : उत्तम (श्रमण) धर्म ___ उत्तम धर्म का अर्थ है-शुद्ध आत्म-धर्म, जो कर्मों का निरोध और क्षय के द्वारा विनाशक हो, आत्मिक सुख को धारण कराने वाला हो, वही संवर और सकामनिर्जरा का कारण हो सकता है। ऐसे आत्म-धर्म से जगत् को क्या लाभ है और इसके न अपनाने से कितनी हानि है ? कर्मविज्ञान ने विशद रूप से इसका वर्णन दो अध्यायों में किया है। साथ ही इस उत्तम धर्म (श्रमणधर्म) के दस प्रकार हैं, वे ये हैं(१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) शौच (पवित्रता), (५) सत्य, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग, (९) आकिंचन्य, और (१०) ब्रह्मचर्य। इन दस ही धर्मों के पूर्व उत्तम शब्द लगाने का कारण है-स्वरूप (आत्म-लक्ष्य) के भावसहित क्रोधादि कषायों और हास्यादि नोकषायों से रहित क्षमादि ही उत्तम क्षमा आदि धर्म हैं। ये क्षमा आदि उत्तम धर्म सिर्फ श्रमणों के लिए ही नहीं, सम्यग्दृष्टि श्रमणोपासकवर्ग के लिए अपनी-अपनी भूमिकानुसार पालनीय हैं। हाँ, अविरत सम्यग्दृष्टि, व्रती श्रावकवर्ग, महाव्रती साधुवर्ग तथा वीतराग में उत्तम क्षमा आदि परिमाणात्मक (Quantity) भेद है, गुणात्मक (Quality) में भेद नहीं। उत्तम क्षमा आदि तो एक ही प्रकार के हैं. उन्हें जीवन में उतारने के स्तर दो-तीन से अधिक हो सकते हैं। तदनन्तर उत्तम क्षमा आदि दसों ही धर्मों के स्वरूप, कसौटियाँ, लाभ, उपाय, अधिकारी आदि का विस्तार से विवेचन किया है, ताकि प्रत्येक मुमुक्षु उसके द्रव्य और भाव से स्पष्ट स्वरूप और उपाय आदि को हृदयंगम करके संवर-निर्जरारूप धर्म का उपार्जन करे और मोक्ष के निकट पहुँच सके। संवर और निर्जरा की जननी, कर्ममुक्ति और आत्म-रमण में सहायिका : द्वादश अनुप्रेक्षाएँ, भावनाएँ ___ आते हुए कर्मों के निरोध और पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय के लिए आगमों या धर्मग्रन्थों में पढ़ी हुई, जानी हुई, सुनी हुई आत्म-लक्षी किसी बात पर बार-बार तदनुकूल चिन्तन अत्यावश्यक है। इसी का नाम अनुप्रेक्षा। जैनजगत् में १२ भावनाओं के नाम से यह प्रसिद्ध है। इसे जप, धारणा, संस्कार या अर्थ-चिन्ता भी कहा जाता है। साधक जब सम्यग्दृष्टिपूर्वक आत्म-लक्षी चिन्तन एकाग्र और तन्मय होकर करता है, तो उसके अज्ञात अन्तर्मन में वह बात स्थिर हो जाती है और अज्ञात मन तदनुसार कार्य भी करने लग जाता है। विविध युक्तियों द्वारा कर्मविज्ञान ने अनुप्रेक्षा का स्वरूप, उपाय, महत्त्व और फल का निरूपण किया है। वे बारह अनुप्रेक्षाएँ तथा भावनाएँ इस प्रकार हैं-(१) अनित्य, (२) अशरण, (३) संसार, (४) एकत्व, (५) अन्यत्व, (६) अशुचित्व, (७) आम्रव, (८) संवर. (९) निर्जरा, (१०) लोक, (११) बोधिदुर्लभ, और (१२) धर्म-भावना (या धर्मानुप्रेक्षा)। इन बारह अनुप्रेक्षाओं का सम्यक् प्रकार से अभ्यास करने से आयुष्यकर्म 'के अतिरिक्तं शेष सात कर्मों की गाढ़बन्धन से बद्ध कर्मप्रकृतियों को शिथिल बन्ध वाली कर लेता है। उनके तीव्र अनुभाव (प्रगाढ रस) को मन्द कर लेता है। उनकी दीर्घकालिक स्थिति को अल्पकालिक कर लेता है तथा उनके बहु-प्रदेशों को अल्प-प्रदेशों में बदल देता है। तथा अनन्त दीर्घ-पथ वाले चातुर्गतिक संसारारण्य को शीघ्र पार कर जाता है। वर्तमान मनोविज्ञान और शरीरविज्ञान की मान्यता की तरह कर्मविज्ञान भी मानता है कि पूर्वोक्त अध्यात्मलक्षी अनुप्रेक्षा-पद्धति से रासायनिक परिवर्तन भी हो जाता है तथा ग्रन्थियों का रसनाव रुक जाने से वासनात्मक आवेग और कषायात्मक आवेश शान्त हो जाते हैं। जैसे तप और संयम से आत्मा को भावित करने के दृढ़ अभ्यास से साधक भावितात्मा बन जाता है, वैसे ही अनुप्रेक्षा द्वारा मानस-चिन्तन बार-बार करने से अवचेतन मन पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। फलतः जैसी अनुप्रेक्षा या भावना एकाग्र मन से की जाती है, वैसा घटित होने लगता है। इस भावधारा के चमत्कार को कर्मविज्ञान ने विविध घटनाओं, युक्तियों, उदाहरणों द्वारा प्रमाणित कर बताया है। इस सजेस्टोलॉजी से अपना और दूसरे का ब्रेन-वाशिंग, हृदय-परिवर्तन, वृत्ति-प्रवृत्ति-परिवर्तन भी घटित हो जाता है। इस भावनायोग का लक्ष्य सर्वकर्ममुक्ति का हो, उद्देश्य आत्म-शुद्धि हो तथा संवेग, वैराग्य, भावशुद्धि, चित्तैकाग्रता से वह अनुप्राणित हो।
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