________________
कर्मविज्ञान : भाग ६ का सारांश
संवरतत्त्व के विविध रूपों का विवेचन
कर्मों के आनव और संवर, बन्ध और निर्जरा तथा मोक्ष के स्वरूप का एवं उनके कारणों का, आनव और बन्ध के विविध प्रकारों का विस्तृत रूप से विवेचन करने के बावजूद भी आम्रवों के निरोध एवं बन्ध के क्षय करने अर्थात् नये आते हुए कर्मों को रोकने और पुराने बँधे हुए कर्मों को क्षय करने अथवा उनके उदय में आने से पूर्व ही उदीरणा, उपशमना, उद्वर्तन, संक्रमण आदि के द्वारा अशुभ शुभ में बदल देने, स्वयं तपश्चरण आदि के द्वारा उदीरणा करके क्षय कर देने, दबा देने तथा उस पूर्वबद्ध कर्म के रस (अनुभाग) और स्थिति को कम कर देने के विविध सिद्धान्त बता देने पर विविध रूपों में निर्दिष्ट संवर, निर्जरा और मोक्ष को जीवन में क्रियान्वित करने के सक्रिय उपाय, आचार तथा आधार क्या-क्या हैं? उन्हें जीवन में आचारित करने में किन-किन बाधक, प्रतिबन्धक एवं विपरीत तत्त्वों से आत्म-रक्षा करनी पड़ती है ? कर्मनिरोध एवं कर्मक्षय के उपायों एवं साधक तत्त्वों को अपनाते समय भी कर्मबन्धकारक, संसारवर्द्धक किन-किन दोषों से बचना आवश्यक है ताकि सम्यकरूप से संवर, निर्जरा और सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष का आचरण हो सके ? इन्हीं प्रबल जिज्ञासाओं को शान्त और समाहित करने हेतु जैन आगमों, शास्त्रों, ग्रन्थों, दर्शनशास्त्रों, तत्त्वार्थसूत्र, कर्मग्रन्थ, कम्मपयडी, गोम्मटसार, द्रव्यसंग्रह, पंचसंग्रह आदि विभिन्न ग्रन्थों के आधार पर कर्मविज्ञान में विशद रूप से अगले भागों में निरूपण किया गया है। कर्मविज्ञान के प्रस्तुत छठे भाग में कर्मों के संवर के सक्रिय उपायों, आधारों तथा आचारों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
कर्ममुक्ति के लिए चार तत्त्वों का ज्ञान और तदनुरूप उपाय
जिस प्रकार निष्णात चिकित्सक रोगी के रोग, रोग के हेतु, रोगमुक्ति के हेतु और रोगमुक्ति (आरोग्य - प्राप्ति), इन चारों का सम्यक् परिज्ञान करके उसकी व्याधि की चिकित्सा करता है, इसी प्रकार . कर्मविज्ञान - निपुण संसारी साधक भी ( कर्म के आस्रव और बन्ध) कर्म, कर्म के हेतु, कर्ममुक्ति और कर्ममुक्ति के हेतु को जानकर ही कर्मरोग से सर्वथा मुक्ति के लिए पुरुषार्थ कर सकता है।
जैनागमों में एक सिद्धान्त बताया गया है कि ज्ञपरिज्ञा से हेय तत्त्व को तथा इससे सम्बद्ध तथ्यों को जानो और प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उसे त्यागो। इस दृष्टि से मुमुक्ष को सर्वप्रथम ज्ञपरिज्ञा से आम्रव और बन्ध को भलीभाँति जानकर प्रत्याख्यान- परिज्ञा से उनका त्याग करके उनके स्थान में कर्ममुक्ति के उपायरूप संवर "और निर्जरा के कर्मविज्ञान में बताये उपायानुसार अभ्यास एवं पुरुषार्थ करना चाहिए । कायिक योगों की तरह मनोकायिक रोगों - भावरोगों की चिकित्सा के लिए तथा आत्मिक स्वस्थता के लिए भी चार तथ्यों का ज्ञान आवश्यक है। यह तथ्य उदाहरण द्वारा प्रस्तुत किया गया है। विभावों से बचकर स्व-भाव में रमण करने हेतु तरह मनोकायिक कर्मरोगों की चिकित्सा आलोचनादि द्वारा की जानी आवश्यक है। ऐसी अध्यात्म-चिकित्सा संवर और निर्जरा के सक्रिय आचरण द्वारा ही हो सकती है। इन और ऐसे ही उपायों से कर्मपुद्गल आत्मा से पृथक् हो सकते हैं। पातंजल योगदर्शन, सांख्यदर्शन तथा बौद्धदर्शन आदि में भी कर्मों को दुःखरूप मानकर पूर्वोक्त प्रकार से चार तथ्यों का ज्ञान और हेय तत्त्वों से मुक्ति का उपाय बताया गया है। धर्म और कर्म का कार्य, स्वभाव और प्रभाव
धर्म और कर्म दोनों एक आत्मा में रहते हैं, फिर भी दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है, दोनों का पृथक्-पृथक् स्वरूप है, स्वभाव भी पृथक्-पृथक् है और दोनों का कार्य भी पृथक्-पृथक् है। जीवन में धर्म आत्मा का निजी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org