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________________ * ६८ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * विषयों के निमित्त से राग-द्वेष होता है, फिर उनके कारण कर्मबन्ध और फिर उदय, यह कर्मबन्ध-परम्परा चलती रहती है। राग-द्वेष की तीव्रता ही भव-परम्परा की कारण है। तीव द्वेप की तरह तीव्र राग भी भव-परम्परा बढ़ाता है। राग और द्वेष विकारयुक्त सम्बन्ध जोड़ने के कारण दुःखवर्धक, चारित्रगुणनाशक और सद्गुण शत्रु होते हैं। राग के मुख्यतया तीन प्रकार हैं-कायराग, स्नेहराग और दृष्टिराग। इनमें दृष्टिराग सबसे भयंकर है। स्नेहराग में देव, गुरु और धर्म के प्रति प्रशस्तराग भी हो सकता है। बाकी तीव्र कायराग और तीव्र दृष्टिराग तो दुर्गति का कारण है ही। राग और द्वेष को विभिन्न रूपों में क्रियान्वित करने वाले क्रमशः इच्छा, मूर्छा आदि तथा ईर्ष्या, रोष आदि भी मानसिक अशान्ति तथा जन्म-मरणादि परम्परा के जनक हैं। कषायों के समान राग-द्वेष की भी तीव्रता-मन्दता की दृष्टि से ६-६ डिग्रियाँ हो सकती हैं। वस्तुतः दोनों में आकुलता और उद्विग्नता है। दोनों ही विकार व्यक्ति की सुख-शान्ति को चौपट कर देते हैं। जहाँ राग होगा, वहाँ दूसरे पक्ष के प्रति बहुधा द्वेष भी होता है। राग और द्वेष के विविध रूपान्तर और विकल्प भी होते हैं। मख्यतः चार विकल्प इस प्रकार हैं-राग से राग.राग से द्वेष. द्वेष से राग और द्वेष से द्वेष। इन चारों को उदाहरण देकर समझाया गया है। संसार में राग की अधिकता है या द्वेष की? ये दोनों ही निमित्ताधीन तथा व्यक्ति के परिणामों पर निर्भर हैं। किन्तु राग की अपेक्षा द्वेष को शीघ्र शान्त न किया जाये तो खतरनाक और वैर-परम्परावर्द्धक हो जाता है। साधक के जीवन में राग और द्वेष हो तो मोक्षमार्ग के सम्यग्ज्ञानादि चतुष्टय की, बाह्याभ्यन्तर तपश्चरण, पंचाचार एवं विविध अध्यात्म साधनाओं की यह तो क्षति है। जरा-सा भी रागभाव मोक्ष का प्रतिबन्धक है। नीचे की भूमिका में अप्रशस्तराग का तो सर्वथा त्याग होना चाहिए, प्रशस्तराग कथंचित् क्षम्य है। किन्तु प्रशस्तराग अपनाने से पहले इस चतुभंगी का चिन्तन करना उचित है-(१) रागी का त्याग, (२) राग का त्याग, (३) त्यागी के प्रति राग, और (४) त्याग के प्रति राग। सुदेव, सुगुरु और सद्धर्म के प्रति प्रशस्तराग करने के समय भी साधकों में मुमुक्षा, विरक्ति, निःस्पृहता अहेतुकी भक्ति और आत्मार्थीपन होना जरूरी है, अन्यथा विवेकहीन मूढ़तायुक्त रागभाव मोक्ष के बदले मोह की ओर प्रेरित करेगा। फिर भी मंद बुद्धि श्रद्धालु साधकों के लिए भावानुराग, प्रेमानुराग मज्जानुराग और धर्मानुराग कथंचित् उपादेय हो सकते हैं, किन्तु कर्मों के क्षय करने का लक्ष्य रखकर उन्हें भी इन अवलम्बनों का त्याग करन अभीष्ट है। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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