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* पारिभाषिक शब्द-कोष * ५३३ *
रोक लेता है, मन से भी उसकी इच्छा नहीं करता, उसके स्त्रीपरीषह-सहन या स्त्रीपरीषह-विजय हो जाता है।
स्त्रीलिंगसिद्ध केवलज्ञान-स्त्रीलिंग में रहते हुए जो वेदमोहनीय का क्षय होने से सिद्धत्व को प्राप्त हुए हैं, उनके केवलज्ञान का स्त्रीलिंगसिद्ध केवलज्ञान कहते हैं। ___ स्त्रीवेद-जिसके उदय से स्त्री को पुरुष की अभिलाषा होती है, वह स्त्रीवेद कहलाता है। ___ स्थविरकल्प-जो साधक-साधिका संघ में रह कर अपना आहार, विहार समाचारीपालन तथा वन्दना आदि सभी व्यवहार करते हों, उनकी वह साधना स्थविरकल्प साधना है। उनके मुख्यतया १0 कल्प होते हैं, उनमें से कुछ अवस्थित और कुछ अनवस्थित होते हैं।
स्थावर-एक ही स्थान में अवस्थित हो कर रहने वाले एकेन्द्रिय जीव।
स्थावर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव की उत्पत्ति एकेन्द्रिय जीवों में होती है, उसे स्थावर-नामकर्म कहते हैं।
स्थिति-(I) काल के परिमाण का नाम स्थिति है। (II) कालकृत व्यवस्था का नाम भी स्थिति है। (III) अपने द्वारा बाँधी हुई आयु (मान लो, मनुष्यायु है तो उस) के उदय से उस भव में उस शरीर के साथ अवस्थित रहना आयु की स्थिति का लक्षण है। (IV) अपने स्वरूप से च्युत न होना, इसे भी स्थिति कहते हैं।
स्थितिकरण-(I) कुमार्ग में जाते हुए स्वयं को मोक्षमार्ग में स्थापित करना स्थितिकरण या स्थिरीकरण है। (II) अथवा दर्शन, चारित्र या संवर-निर्जरारूप धर्म या धर्म से भ्रष्ट होते, डिगते हुए, धर्मान्तर करने जाते हुए या धर्मभ्रष्ट हो कर पतित होते हुए प्राणियों (विशेषतः मानवों) को धर्मानुरागियों द्वारा धर्म में प्रतिष्ठित किया जाता है, उसे स्थिर किया जाता है, इसे भी स्थिति (स्थिरी)-करण कहते हैं। यह सम्यक्त्व के ८ अंगों में से एक अंग है।
स्थितिबन्ध-कर्ता के द्वारा गृहीत कर्मराशि का अपने आत्म-प्रदेशों में स्थित रहना स्थिति है। जीव के परिणाम (अध्यवसाय = कषाय की तीव्रता-मन्दता) के अनुसार काल-सीमा निर्धारित होना स्थितिबन्ध है।
स्थिति-संक्रम-मूल व उत्तरकर्मप्रकृतियों की जो स्थिति उद्वर्तित या अपवर्तित की जाती है अथवा अन्य प्रकृति को प्राप्त कराई जाती है, उसे स्थिति-संक्रम कहा जाता है।
स्थिर-नामकर्म-स्थिरता का उत्पादक कर्म।
स्नातक (निर्ग्रन्थ)-जिन्होंने चार घातिकर्मों का सर्वथा क्षय कर दिया है, वे सयोगीकेवली और अयोगीकेवली ये दो प्रकार के निर्ग्रन्थ स्नातक कहलाते हैं।
स्निग्ध-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलों में स्निग्धता हो, उन्हें स्निग्ध-नामकर्म कहते हैं।
स्नेहराग-विषयादि के निमित्त विकल होते हुए व्यक्ति को, जो विनयहीन पुत्रादि पर भी राग होता है, उसे स्नेहराग कहते हैं।
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