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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ५११ * वचनसिद्धि : वचन-निर्विषा ऋद्धि-(1) जिस सिद्धि, लब्धि या ऋद्धि के प्रभाव से, वालने मात्र से विष-संयुक्त तीक्ष्ण या कटु आदि आहार निर्विष हो जाता है, उसे वचननिर्विषा ऋद्धि कहते हैं। (II) या जिस ऋद्धि, सिद्धि या लब्धि के प्रभाव से ऋद्धिधारी के वचन को सुन कर बहुत-से रोगों से अभिभूत प्राणी नीरोग, स्वस्थ हो जाते हैं, वह भी वचननिर्विपा ऋद्धि या वचनसिद्धि है। वचनबलप्राण-स्वर-नामकर्म के साथ शरीर-नामकर्म होने पर जो वचन- विषयक प्रवृत्ति (व्यापार) करने की विशेष शक्ति होती है, उसे वचनबलप्राण कहते हैं! वचन-बला ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रकट होने पर मुनि जिह्वेन्द्रियावरण, नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण एवं वीर्यान्तराय के उत्कृष्ट क्षयोपशम से एक मुहूर्त के भीतर समस्त श्रुत को अनायास ही जान लेता है और उत्तम स्वर के साथ उच्चारण भी कर लेता है, उसे वचन-बला ऋद्धि जानना चाहिए। वज्रऋषभनाराच संहनन-जिस नामकर्म के उदय से वज्र के समान अभेद्य हड्डियाँ वज्रमय वेष्टन (ऋषभ) से वेष्टित और वज्रमय नाराचों से कीलित रहा करती हैं, उसे वऋषभनाराच संहनन-नामकर्म कहते हैं। वध-किसी जीव की आयु, इन्द्रियाँ और बलप्राणों का वियोग करना वध है। लकड़ी, चाबुक या बेंत आदि से मारना-पीटना या सताना-डराना भी वध है। यह असातावेदनीय कर्मबन्ध का कारण है। . वनकर्म-वनजीविका-वन को खरीद कर वृक्षों को काटना और बेचना, कटे हुए या विना कटे हुए वन के फलों, फूलों, पत्तों आदि को बेच कर आजीविका चलाना, वह वनजीविका या वनकर्म (वणकम्मे) नामक कर्मादान है, खरकर्म है। __ वनस्पतिकायिक जीव-वनस्पति-नामकर्म के उदय से जिनका शरीर वनस्पति का होता है, वनस्पतिकायिक जीव है। वध-परीषह-जय-(I) तीक्ष्ण शस्त्र-अस्त्रादि के द्वारा घात करने पर भी घातक जनों के प्रति रोष, द्वेष, शाप, कोपादि विकार को प्राप्त न हो कर यह विचार करना कि यह सब मेरे पूर्वकृत कर्म का फल है। ये बेचारे मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं ? शरीर तो नाशवान् है ही, उसी को ये भले ही नष्ट कर दें इत्यादि विचार करते हुए उसे शान्ति, समता और धैर्य के साथ सहन करना वध-परीषह-जय है। वन्दना-अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, गुरु (दीक्षादाता), तप, श्रुत या गुणों में अधिक साधकों को तीन करणों के संकोचपूर्वक-मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक कृतिकर्म (वन्दनीय क्रम) के द्वारा कायोत्सर्ग आदि सहित या बिना कायोत्सर्गादि के जो अभिवादन-स्तुतिपूर्वक (गुरु-वन्दन-पाठ = तिक्खुत्तो के पाठ से) पंचांग नमा कर प्रणाम किया जाता है, उसे वन्दना कहते हैं। षड् आवश्यकों में यह तीसरा आवश्यक है। इसका वन्दना के अतिरिक्त गुणवत्-प्रतिपत्ति नाम भी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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