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________________ * ५०० * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * ___ मार्गणा-अन्वय धर्म (सम्बन्धित वस्तु-तत्त्व) की प्रार्थना = अन्वेषणा-गवेषणा करन मार्गणा है। मार्गणा, गवेषणा, अन्वेषणा ये समानार्थक शब्द हैं, इसलिए जीव (आत्मा) का गति, इन्द्रिय आदि १४ द्वारों (स्थानों) से, अथवा सत्संख्या आदि से विशिष्ट १४ गुणस्थानों (जीवसमासों) का अन्वेषण-सर्वेक्षण किया जाये, उसकी मार्गणा संज्ञा है। __मद-मद्य आदि के समान असम्बद्ध संलाप, जिसे अपनी जाति, कुल, बल, रूप, तप लाभ, श्रुत और ऐश्वर्य का घमण्ड होता है इनमें से किसी एक या अनेक के आश्रय से अपना अभिमान प्रकट करना मद है। दूसरों को अपना बनाने या अपनी ओर आकर्षित करने के लिए बढ़-चढ़कर अपनी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा की जाती है, वह भी मद हैं। दे आठ प्रकार के मद सम्यक्त्व-साधना में अत्यन्त बाधक हैं। ___ मद्य-जिनके सेवन से बुद्धि लुप्त हो जाती है, स्मरण-शक्ति कुण्ठित हो जाती है, अपने-पराये का, गम्य-अगम्य, वाच्य-अवाच्य का कोई विचार नहीं रहता, ऐसी सभी नशीली चीजें मद्य हैं। जैसे-शराब, भाँग, गाँजा, गुटका, तम्बाकू, हिरोइन, ब्राउन शुगर आदि सब चीजें मद्य हैं। सप्त कुव्यसनों में यह एक कुव्यसन है। इसके व्यसन से प्राणी आध्यात्मिक विकास नहीं कर पाता।। ___ मधुर-नाम-जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल मधुररसरूप से परिणत होते हैं, उसे मधुररस-नामकर्म कहते हैं। ___ मनःसंयम-अकुशल मन का निरोध करना, अपवित्र विचारों को उत्पन्न न होने देना, पवित्र विचारों को मन में स्थान देना मनःसंयम है। द्वेष, द्रोह, ईर्ष्या, अभिमान, कपट आदि दुर्भावों से दूर रह कर धर्मध्यान आदि में प्रवृत्त होना भी मनःसंयम है। मनःपर्यय, मनःपर्याय, मनःपर्यवज्ञान–(I) वीर्यान्तराय और मनःपर्यायज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग-नामकर्म के लाभ के बल से आत्मा का, जो दूसरे के मन के सम्बन्ध से उपयोग उत्पन्न होता है, वह मनःपर्यवज्ञान कहलाता है। (II) जो ज्ञान जीवों द्वारा मन से चिन्तित अर्थ को प्रकट किया करता है, उसे मनःपर्यव, मनःपर्याय या मनःपर्यवज्ञान कहते हैं। उसका सम्बन्ध मनुष्यक्षेत्र से है। अर्थात् वह मनुष्यलोक में अवस्थित संज्ञी जीवों के मन से चिन्तित अर्थ को ही जानता है। मनुष्यलोक के बाहर स्थित जीवों के मनश्चिन्तित अर्थ को नहीं। वह शुद्ध-निर्दोष चारित्रवान् संयत के शान्ति आदि गुणों के निमित्त से उत्पन्न होता है। इसके दो प्रकार हैं-ऋजुमति और विपुलमति। मनःपर्यायज्ञानावरणीय कर्म-मनःपर्यायज्ञान का आवरक कर्म। । मनःपर्याप्ति-(I) मनरूप होने योग्य द्रव्य के ग्रहण और त्याग की शक्ति जिस क्रिया से निर्मित हो उसकी पूर्णता। (II) अनुभूत पदार्थों के स्मरण की शक्ति के निमित्तभूत मनोवर्गणा के स्कन्धों से जो पुद्गलसमूह उत्पन्न होता है, वह भी मनःपर्याप्ति है। (III) द्रव्यमन के आलम्बन से जो अनुभूत पदार्थों के स्मरण की शक्ति उत्पन्न होती है, उसे भी मनःपर्याप्ति कहते हैं। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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