SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 653
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४९९ * ___ माया चारित्रमोहनीय के भेदरूप मायाकषाय के उदय से जीव को दूसरों को ठगने, वंचना करने के कुटिल परिणामों की उत्पत्ति मायाकषाय है। माया-निःसृता असत्यभाषा--(I) कपटपूर्वक गूढ़ भाषा दूसरों को छलने के लिए बोलना। (II) मायाचार (दम्भ) पूर्वक कहना ‘यह इन्द्र है', 'यह देव है' इस प्रकार का कथन माया-निःसृत असत्यभाषा है। ___ माया-मृषावाद-कपटपूर्वक झूठ बोलना, मन में कुछ और हो और बाहर से झूठा प्रदर्शन करना, दम्भ, ढोंग-धतिंग करना, अन्य वेश और भाषा करके दूसरों को धोखा देना माया-मृषावाद कहलाता है। ___ मायाशल्य-(I) किसी भी प्रकार का मायाजाल रच कर दूसरों को ठगना तीक्ष्ण काँटों का-सा मायारूप शल्य मायाशल्य है। (II) यह आलोचनाह प्रायश्चित्त का एक दोष है, जिसमें पर-स्त्री आदि के इच्छारूप या दूसरे. जीवों के वध-बन्धन आदिरूप दुर्ध्यान को कोई नहीं जानता, ऐसा समझकर साधक दोषों को छिपाता है, यथार्थ आलोचना नहीं करता, वहाँ मायाशल्यवश वह विराधक हो जाता है। मारणान्तिक समुद्घात-(I) मरणान्त समय में मूल शरीर को बिना छोड़े ऋजुगति या विग्रहगति से जहाँ कहीं उत्पन्न होना है, उस क्षेत्र तक जा कर शरीर से तिगुणे बाहुल्य से या अन्य प्रकार से अवस्थित रहना मारणान्तिक समुद्घात कहलाता है। (II) औपक्रमिक या अनौपक्रमिक आयु के क्षय से मरण के अन्तकाल में होने वाला समुद्घात। ___ मारणान्तिकातिसहनता-मरणकाल में होने वाले या मारणान्तिक कष्ट, उपसर्ग या परीषह को असंख्यगुणी निर्जरा को अलभ्य अवसरदायक तथा कल्याणकारक मित्र समझ कर धैर्य व समभाव से, शान्ति से सहन करना। यह अनगार के २७ मूलगुणों में अन्तिम गुण है। __ मारणान्तिकी संलेखना-समाधिमरण की पूर्व तैयारी। जिसमें तप और कषायों को कृश किया जाये, उसका नाम संलेखना है। मृत्यु के होने का आभास होने-ज्ञान होने या आसार दिखने पर पहले (अपश्चात्) या पश्चात् (अपश्चिमा व पश्चिमा) संलेखना की जाती है। यह संलेखना चूँकि मरणरूप अन्त समय में होती है, इसलिए इसे मारणान्तिकी संलेखना कहते हैं। - मार्ग-(1) 'मृजु शुद्धौ धातु से निष्पन्न ‘मार्ग' शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ होता हैशुद्ध द्रव्यमार्ग की तरह जो शुद्ध भावमार्ग है। जैसे-काँटे, कंकर, झाड़-झंखाड़ आदि दोषों से रहित मार्ग से अभिप्रेत स्थान पर जाने वाले पथिक सुखपूर्वक पहुंच जाते हैं, इसी प्रकार मिथ्यादर्शन-अविरति आदि दोषों से रहित सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रययुक्त श्रेय (मोक्ष) के प्रति ले जाने वाले शुद्ध मार्ग से मोक्षपथिक सुख से मोक्ष पहुँच जाते हैं। इस कारण शुद्ध रत्नत्रय को मार्ग कहा गया है। (II) मार्गण = अन्वेषण करने-शोध-खोज करने अर्थ में होने से जिससे आत्मा की, परमात्मा की या मोक्ष की शोध = अन्वेषणा-मार्गणा की जाये, उसे भी मार्ग कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy