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________________ * ४८८ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * प्राणिसंयम-एकेन्द्रियादि जीवों को किसी भी प्रकार से पीड़ा न पहुँचाना प्राणिसंयम है। इसे जीवकायसंयम भी कहा गया है। प्रायश्चित्त-(I) आभ्यन्तरतप का प्रथम प्रकार। जिसके द्वारा पूर्वकृत पापों का विशोधन होता है, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। (II) पापों को नष्ट करने वाला होने से इसे ‘पापच्छित्' भी कहते हैं। (III) जिससे प्रायः चित्त की शुद्धि हो जाती है, उसे भी प्रायश्चित्त कहते हैं। यह आलोचनार्ह इत्यादि भेद से १0प्रकार का है। प्रासुक-जो त्रस एवं स्थावर जीवों से रहित हो गया है, उसे प्रासुक, अचित्त, सूक्ष्म जीवों के संचार से रहित कहते हैं। प्रारब्धकर्म-पूर्वकृत कर्म, जिसका भविष्य में फल भोगना पड़ेगा। प्रीतिदान-(I) अपने नगर या ग्राम में भगवान के-तीर्थंकर या केवली के, अथवा आचार्य, उपाध्याय और साधु-साध्वी के आगमनविषयक समाचार देने वाले नियुक्त या अनियुक्त पुरुष के लिए जो हर्षपूर्वक दान दिया जाता है, उसे प्रीतिदान कहते हैं। (II) अथवा प्राचीनकाल में कन्याओं के पाणिग्रहण के समय वर-कन्या को, किसी प्रकार के दबाव, श्वसुर-पक्ष की माँग या भयवश नहीं, किन्तु प्रसन्नतापूर्वक जो दान दिया जाता था, उसे प्रीतिदान कहा गया है। प्रेक्षासंयम-प्रेक्ष्यसंयम-(I) भलीभाँति देखभाल करके कि किसी जीव को हानि न पहुँचे, इस आशय से भलीभाँति निरीक्षण करके कार्य करना प्रेक्षासंयम है। (II) प्रेक्ष्य = बीज, जन्तु, हरितकाय आदि से रहित भूमि को या पट्टे, चौकी, आसन आदि को देख कर बैठना, सोना या स्थित होना अथवा यतनापूर्वक जीव-जन्तु देख कर चलना, भोजन करना आदि प्रवृत्ति भी प्रेक्ष्यसंयम या प्रेक्षासंयम कहलाती है। पौषधोपवासव्रत-श्रावक का ग्यारहवाँ प्रतिपूर्ण पौषधव्रत, जिसमें आठ पहर तक चौविहार उपवास सहित रहना होता है। आत्म-चिन्तन, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग, प्रवचन-श्रवण आदि करके आत्म-जागृतिपूर्वक साधुवत् रहना होता है। इसमें आरम्भ-परिग्रह त्याग, अब्रह्मचर्य, शरीर-शृंगार, आभूषणादि व्यापार-व्यवसाय आदि सावध व्यापारों का त्याग आवश्यक होता है। सोना, बैठना आदि क्रियाएँ प्रतिलेखन-प्रमार्जनपूर्वक की जाती हैं। इस व्रत के ५ अतिचार हैं। पुनर्जन्म-मृत्यु के बाद पुनः कर्मानुसार गति या योनि में जन्म। पूर्वजन्म-इस जन्म से पहले का जन्म-जन्मान्तर। परिज्ञा-वस्तुतत्त्व का भलीभाँति ज्ञान करना, उसका विश्लेषण करना परिज्ञा है। परिज्ञा दो प्रकार से होती है, किसी राग-द्वेष, कषाय आदि पापकर्मबन्धक पाप का त्याग करने के लिए जैनागमों से दो ठोस उपाय बताये हैं-ज्ञपरिज्ञा से उसे जानो और प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका त्याग करो। पूर्वाग्रह-किसी भी परम्परा, रूढ़ि, रीति-रिवाज या प्रथा को गलतं होने, युगबाह्य होने, उससे स्व-पर को आर्थिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक हानि होने पर भी पूर्वजों ने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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