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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४८७ * प्रशस्त-निदान-संयम के हेतुभूत मनुष्यपर्याय, सत्व (उत्साह), बल (शारीरिकमानसिक). वीर्य और संहनन, इनकी प्रार्थना करना तथा श्रावककुल व बन्धुकुल में उत्पन्न होने की प्रार्थना करना प्रशस्त-निदान कहलाता है। प्रशस्तराग-अरिहन्त, सिद्ध और साधु-साध्वियों के प्रति भक्ति, धर्म में-धर्माचरण में अनुरक्ति (प्रवृत्ति), तथा गुरुजनों के वचनानुसार आचरण करना प्रशस्तराग है।। प्रशस्त (शुभ) विहायोगति-जो कर्म उत्तम बैल, हाथी आदि की प्रशस्त (उत्तम) गति (चाल) के समान उत्तम गति (चाल) का कारण है, उसे प्रशस्त (शुभ) विहायोगतिनामकर्म कहते हैं। प्रशस्त इन्द्रिय-प्रणिधि-शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, इन इष्ट-अनिष्ट इन्द्रिय-विषयों के प्रति राग-द्वेष न करना प्रशस्त इन्द्रिय-प्रणिधि है, जिसकी साधना से जीव अष्टविध कर्मरज को नष्ट करता है। इसकी विधि है-इन्द्रियों के विषय-विचार को रोकना, इन्द्रिय-विषयता को प्राप्त पदार्थों पर राग-द्वेष न करना, कषायों के उदय को रोकना, तथा उदयगत कषायों का निग्रह करना प्रशस्त इन्द्रिय-प्रणिधि का मार्ग है। प्रशान्तरस-हिंसादि दोषों से रहित, मन के समाधान (समाधि) से, उसकी विषय-विमुखतारूप स्वस्थता से होने वाले निर्विकार (हास्यादि विकारों से रहित) रस को शान्तरस कहते हैं। यह क्रोधादि के परित्याग से होता है। प्रागभाव-कार्य की उत्पत्ति होने से पूर्व जिसका अभाव रहता है, अर्थात् जिसकी निवृत्ति होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है, वह प्रागभाव कहलाता है। प्रध्वंसाभाव-(I) अगली पर्याय-आगामी काल-से विशिष्ट जो कार्य है, वह प्रध्वंसाभाव कहलाता है। यानी जिसकी उत्पत्ति होने पर कार्य की अवश्य विपत्ति (विनाश) हो जाता है। जैसे-दही की उत्पत्ति होते ही दूध का अवश्य विनाश हो जाता है, वह प्रध्वंसाभाव का स्वरूप है। प्राण-बल, इन्द्रिय, आयु और उच्छ्वास, ये प्राण कहलाते हैं। वीर्यान्तराय और ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग-नामकर्म के उदय से प्राप्त होने वाले श्रोत्रेन्द्रिय आदि ५ इन्द्रियबलप्राण, मनोबलप्राण, वचनबलप्राण, कायबलप्राण, उच्छ्वासनिःश्वासबलप्राण और आयुष्यबलप्राण ये १० प्रकार के प्राण जैनागमों में वर्णित हैं। प्राणातिपात-(I) प्राणियों के पूर्वोक्त, दशविध प्राणों को नष्ट करना, हानि पहुँचाना, भयभीत करना, अत्याचार करना, प्राणों को संकट में डालना आदि प्राणातिपात हैं। (II) इन १० प्रकार के प्राणों में से किसी भी प्राण का वियोग करना-कराना, अनुमोदन करना प्राणातिपात (हिंसा) है। इससे विरत होना प्राणातिपात-विरमण है। __प्राणिवध-प्रमाद के वश होकर आकुट्टी की बुद्धि से किसी भी प्राणी का हनन करना। प्राणायाम-(I) उत्तम भावनापूर्वक मन-वचन-काययोगों का निरोध-निग्रह करना प्राणायाम है। (II) जिसके द्वारा ध्यान की सिद्धि और अन्तरात्मा की स्थिरता होती है उसे भी प्राणायाम कहा गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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