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________________ पारिभाषिक शब्द - कोष * ४८५ * प्रत्येकबुद्ध-बैल, बादल, ध्वजा, स्त्री आदि किसी भी एक बाह्य वस्तु को देख कर उसके आश्रय से संसारविरक्तिरूप प्रबोध को पाते हैं, वे प्रत्येकबुद्ध कहलाते हैं। जैसेकरकण्डू आदि । प्रत्येकबुद्ध सिद्ध-प्रत्येकबुद्ध होते हुए जो सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त होता है, वह । प्रथमानुयोग - चरित्र और पुराणरूप श्रुत का नाम प्रथमानुयोग है, जिसमें किसी विशिष्ट पुरुष के जाति कथा का नाम चरित्र तथा त्रिषष्टिशलाका पुरुषों के आश्रित • कथा का नाम पुराण है। प्रथमानुयोग को श्वेताम्बर - परम्परा में चरितानुयोग कहा है । प्रदेशबन्ध - (I) कर्मदलों का संचय होना प्रदेशबन्ध है । (II) योग-विशेष के आश्रय से, सभी भवों में अथवा सब ओर से आ कर, सूक्ष्म एक क्षेत्र का अवगाहन करते हुए कर्मदलों का आत्म-प्रदेशों पर स्थित होना प्रदेशबन्ध है | (III) आत्म- प्रदेशों और कर्मप्रदेशों का सम्बन्ध होना प्रदेशबन्ध है। प्रदेश- संक्रम-विवक्षित कर्मप्रकृति का जो कर्म- द्रव्य अन्य ( सजातीय) प्रकृति को प्राप्त कराया जाये तद्रूप परिणमाया जाये, वह प्रदेश-संक्रम कहलाता है। प्रभावना-सम्यक्त्व का आठवाँ अंग । (I) धर्मकथादि के द्वारा धर्मतीर्थ को प्रसिद्धि में लाना। (II) सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्ररूप रत्नत्रय के प्रभाव से या रत्नत्रय तेज से आत्मा को प्रभावित व प्रकाशित करना आत्म-प्रभावना है। (III) संसार में फैले हुए अज्ञानान्धकार के प्रसार को दूर करके यथायोग्य जिनशासन के माहात्म्य को फैलाना भी प्रभावना है। प्रमत्तसंयत (प्रमत्तविरत ) - (I) जो छठे गुणस्थानवर्ती साधु वर्ग सम्यक्त्व आदि समस्त गुणों तथा महाव्रतों को स्वीकार करके व्रतरक्षक शीलों से युक्त हो कर भी व्रतपालन में व्यक्त (स्थूल) तथा अव्यक्तरूप से प्रमाद करता है, वह प्रमत्तसंयत है। (II) जो संयम को स्वीकार करके विकथादि प्रमादों से युक्त होता है, वह प्रमत्तसंयत या प्रमत्तविरत होता है । प्रमाण - (I) स्व और पर को प्रकाशित करने वाले निर्बाध ज्ञान का नाम प्रमाण है। (II) आत्मा आदि के ज्ञान को यानी जीव- पुद्गलादि के, अथवा स्व और अर्थ (परार्थ) के ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। इसके मुख्यतया दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के दो भेद - पारमार्थिक प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष । परोक्ष के तीन भेद - अनुमान, और प्रत्यभिज्ञान | आगम प्रमाणातिक्रम - तीव्र लोभ के वश हो कर स्वीकृत परिग्रह - प्रमाण के उल्लंघन करने की प्रमातिक्रम कहते हैं। प्रभाद - (1) उत्तम क्रियाओं- व्रत-संयमादि के विषय में अनादर करना । (II) संज्चलनकषायचतुष्क और नौ नोकषायों के तीव्र उदय का नाम प्रमाद है। (III) मोक्षमार्ग के प्रति उद्यम में शिथिलता प्रमाद है। प्रमादाचरित-(I) मद्य (मदवर्द्धक) विषय, कषाय, निद्रा ( निन्दा), विकथा आदिरूप प्रमाद का आचरण करना प्रमादाचरित है। (II) निष्प्रयोजन पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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