SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 638
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ४८४ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * परिष्ठापनासमिति-प्रतिष्ठापनसमिति-जो स्थान जीव-जन्तुओं से रहित. निरवद्य हो, निश्छिद्र हो, जहाँ आवागमन न हो, गूढ़ हो, दूसरों की बाधा से रहित स्थान हो, एसे प्रासुक स्थान पर मल-मूत्रादि विसर्जन = परिष्ठापन करना (परिटाना) प्रतिष्ठापनसमिति या परिष्ठापनसमिति है। इसका दूसरा नाम उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाणपरिष्ठापनिकासमिति भी है। प्रतिसेवनाकुशील-पंचविध निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। जिनकी परिग्रहासक्ति कम नहीं हुई है, यद्यपि वे मूलगुणों-उत्तरगुणों का भलीभाँति पालन करते हैं, फिर भी कथंचित् उत्तरगुणों की विराधना कर देते हैं, ऐसे साधु प्रतिसेवनाकुशील निर्ग्रन्थ कोटि के होते हैं। कुशील निर्ग्रन्थ के अन्तर्गत एक कषायकुशील भी होते हैं; जिनके मूल-उत्तरगुणों क पालन बराबर होता है; किन्तु कषायों की मन्दता नहीं होती। ___ प्रत्यभिज्ञान-परोक्षप्रमाण का एक भेद। ‘यह वही है' इत्याकारक ज्ञान को, अथवा यह उसी के सदृश (जैसा) है, इस प्रकार के ज्ञान (प्रमाण) को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। प्रत्यय-जिसके आश्रय से पदार्थ की प्रतीति हो, वह प्रत्यय कहलाता है। जैसे-ज्ञान के विषयभूत घट आदि को प्रत्यय कहा जाता है। प्रत्याख्यान-(1) आगन्तुक दोषों का परित्याग करना प्रत्याख्यान है। (11) परित्याज्य या स्वेच्छा से त्याग करने की शक्यता वाली वस्तु के प्रति परित्याग करता हूँ', इस प्रकार बोल कर प्रत्याख्यान करना प्रत्याख्यान है। (III) नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से ६ प्रकार के अयोग्यों = पाप के कारणों का वर्तमान एवं भविष्यकाल की अपेक्षा मन-वचन-काया से जो परित्याग किया जाता है, उसे प्रत्याख्यान कहते हैं। शास्त्र में इसके दो प्रकार भी बताये हैं-सुपत्याख्यान और दुष्प्रत्याख्यान। प्रत्याख्यान-कषाय-प्रत्याख्यानावरणीय कषाय--जो कषायचतुष्क संयम (सर्वविरति = सकलचारित्र) का विघात करते हैं, उन्हें उपर्युक्त नामों से पुकारा जाता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय सर्वविरति को आवृत करता है। जिनके उदय से जीव महाव्रतों (सकलचारित्र) का पालन या स्वीकार नहीं कर पाता, उन्हें प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ कहते हैं। प्रत्येकजीव-(I) मूलबीज, अग्रवीज, पोरबीज, कन्द, स्कन्ध, स्कन्धबोज, बीजरूह (बीज से उत्पन्न होने वाले गेहूँ आदि अनाज) और सम्मूर्छिम, ये वनस्पतिकायिक जीव प्रत्येक भी होते हैं और अनन्तकाय (साधारण) भी। प्रत्येक जीव साधारण से भिन्न होते हैं, निनकी शिरा, सन्धियाँ और पोर आदि प्रकट दीखते हैं। (II) पत्ता, फल, फूल, जड़ और स्कन्ध आदि के आश्रित जो एक-एक जीव रहते हैं, वे प्रत्येक जीव हैं। (III) देव, नारक, मनुष्य, द्वीन्द्रिय से ले कर पंचेन्द्रिय तक तिर्यंच, पृथ्वी आदि तथा कैथ आदि वृक्ष; ये सब प्रत्येकजीव माने जाते हैं। प्रत्येक-नाम-प्रत्येकशरीर-नाम-जिस नामकर्म के उदय से एक जीव के एक ही शरीर की रचना होती है, उसे प्रत्येक-नामकर्म कहते हैं। इसे प्रत्येकशरीर-नामकर्म भी कहा जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy