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* ४८२ * कर्मविज्ञान भाग ९: परिशिष्ट *
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प्रगट करती है वह कर्म-प्रकृति है। (III) सत्त्व, रज और तमोगुण की साम्यावस्था प्रकृति है (सांख्य)।
प्रकृतिबन्ध-(I) तीव्र-मन्द या शुभाशुभरूप विशेषता से रहित इसकी प्रकृति = अनुभाग के स्वभाव को प्रकृतिबन्ध कहा गया है। (II) प्रकृति नाम-स्वभाव का है। ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की जो ज्ञानादि के आवरणरूप प्रकृति (स्वभाव) है, उसे विभिन्न रूपों में बाँध देना प्रकृतिबन्ध है। विभिन्न कर्मों की स्वभावानुसार छंटनी (Sorting) कर देना प्रकृतिबन्ध का कार्य है।
प्रकृति-संक्रम-(I) जो प्रकृति अन्य प्रकृतिरूपता को प्राप्त कराई जाये। (II) अथवा जब एक कर्म की उत्तरप्रकृति अन्य सजातीय उत्तरप्रकृति में संक्रमण को प्राप्त होती है, उसे प्रकृति-संक्रम कहते हैं। जैसे–असातावेदनीय की सातावेदनीय में, सातावेदनीय की असातावेदनीय में।
प्रकृति-स्थान:संक्रम-दो-तीन आदि प्रकृतियों के समुदाय को प्रकृति-स्थान कहते हैं। जब एक प्रकृति में बहुत-सी कर्मप्रकृतियाँ संक्रमित होती हैं, जैसे-यशःकीर्ति नाम में शेष नामकर्म-प्रकृतियाँ; तब उसे प्रकृति-स्थान-संक्रम कहा जाता है।
प्रच्छन्न-दोष-जो साधु गुप्तरूप से पूछ कर अपने अपराध की शुद्धि करता है, उसके आलोचना का छठा दोष उत्पन्न होता है।
प्रज्ञापनी भाषा-(I) बहुत-से लोगों को लक्ष्य करके जो धर्मोपदेश दिया जाये, धर्मचर्चा की जाये। (II) अथवा विनम्र शिष्य को उसके हित से प्रेरित हो कर जो उपदेश दिया जाये। (III) अथवा शिष्य के द्वारा पूछने पर उसकी विनति के अनुसार प्रज्ञापना करना प्रज्ञापनी भाषा है। यथा-'जो प्राणिहिंसा से निवृत्त होते हैं, वे आगामी जन्म में दीर्घायु होते हैं।' _प्रज्ञापरीषह-प्रज्ञापरीषह-जय-(I) विशिष्ट ज्ञान के प्राप्त होने पर उससे गर्व को प्राप्त होना प्रज्ञापरीषह है। (II) अथवा बहुत श्रम का अभ्यास करने पर भी ज्ञान का प्राप्त न होना प्रज्ञापरीषह है। प्रथम परिभाषानुसार-ज्ञान प्राप्त होने पर भी ज्ञान का गर्व न करना प्रज्ञापरीषह-जय है। द्वितीय परिभाषानुसार-ज्ञानाभिलाषी होने पर भी प्राप्त न होने पर खिन्न न हो कर अपने कर्मों का दोष समझना प्रज्ञापरीषह-विजय है।
प्रतिकुंचन-माया-आलोचना करते हुए अपने दोष को छिपाना प्रतिकुंचन माया है।
प्रतिक्रमण-(I) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से जो अपराध (दोष) हुए हों, उन्हें निन्दना (पश्चात्ताप), गर्हणा से युक्त हो कर मन-वचन-कायपूर्वक शुद्ध करना प्रतिक्रमण है। (II) स्व-स्थान से प्रमादवश पर-स्थान में गये हुए जीव का पुनः स्व-स्थान में = संयम में लौटना प्रतिक्रमण है। (III) प्रमाद एवं कषायवश तथा योगों की चंचलतावश जो भी अपराध (दोष) हुआ हो, उसके लिए 'मेरा वह दुष्कृत मिथ्या हो'; यों पश्चात्तापपूर्वक प्रतीकार प्रगट करना भी प्रतिक्रमण है। (IV) पूर्व में जो शुभ-अशुभ अनेक प्रकार के कर्म किये हैं, उनसे अपने को पृथक् करना, अर्थात् पूर्वकृत कर्मों के
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