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________________ .:. ४७६ कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट - जिनकी आत्मा है, तथा परा = सर्वोत्कृष्टा अन्तरंग-बहिरंगलक्षणा, अनन्त-चतुष्टयादिरूपा तथा समवसरणादिरूपा मायानी लक्ष्मी जिनके है, वे परम हैं। ऐसे परम आत्मा सयोगाकेवली अर्हन्त परमात्मा हैं। ___ परमावधिज्ञान-जिस ज्ञान की उत्कृप्ट मर्यादा असंख्यात लोक-प्रमाण संयम के विकल्प हैं, वह परम अवधिज्ञान है। तीर्थंकर भगवान को जन्म से ही परम अवधिज्ञान होता है। परलोक-(I) दसरे भव में जीव के जाने का नाम परलोक है। व्यवहारनय से स्वर्ग, नरक, अपवर्ग आदि को परलोक कहा जाता है। (II) वीतराग-चिदानन्दरूप अनुपम स्वभाव वाले आत्मा का नाम 'पर' है. उसका जो निर्विकल्प समाधि में अवलोकन किया जाता है, उसे भावतः ‘परलोक' कहते हैं। परलोकभय-(I) परभव से सम्बन्धित भय। (II) विजातीय तिर्यंच, देव आदि से मनुष्यों आदि को जो भय होता है, उसे भी परलोकभव कहा गया है। (III) इस प्रकार के दुर्धर अनुष्ठान का परलोक में कर विशेष पल होगा या नहीं ? इस प्रकार की भांति को भी परलोकभय कहा जाता है। परलोकभय-निवारण-लोक शाश्वत व एक ही है, जो सबको प्रकट है। शुद्ध चेतन-आत्मा के केवलज्ञानम्बम्ध कंक का स्वयं अकेला अवलोकन करता है, उसको छोड़ कर दूसरा कोई तेरा लोक है हो नहीं. तब भला, तुझे उसका भय कहाँ से, कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता। इस प्रकार (निश्चयनयदृष्टि से) परलोकभय का निवारण करना चाहिए। - परलोकाशंसाप्रयाग-परभव में देवलोक आदि के पाने की इच्छा से व्रत, तप, समाधिमरण संथारा आदि कग्ना परलोकाशंसा प्रयोग है! यह सैंलेखना-संथाराव्रत का एक अतिचार है। पर-विवाहकरण-कन्यादान का नाम विवाह है। अपनी सन्तान को छोड़ कर अन्य की सन्तान (पुत्र-पुत्री) का कन्यादान के फल की लिप्सा से अथवा स्नेह के सम्बन्ध से विवाह करना-कराना पर-विवाहकरण है। यह श्रावक के ब्रह्मचर्याणुव्रत का एक अतिचार है। परव्यपदेश-(1) अन्य दाता की देय वस्तु का देना--परव्यपदेश है। (II) इसका दाता दूसरे स्थान पर है, दी जाने वाली भोग्य वस्तु भी मेरी नहीं है, अन्य की है. इस प्रकार साधु-साध्विरों को आहारादि देने में टालमटूल करना, यह वस्तु दूसरे की है, इसलिए नहीं दे सकता, यह कह कर भिक्षा न देना परव्यपदेश है। यह ‘अतिथि-संविभागवत' का अतिचार है। पर-समय-(1) जीव के द्वारा ज्ञान-दर्शन-स्वरूप स्वभाव अपना (आत्मा का) है, यह जानते हुए भी, मोहनीय कर्मोदयवश विभाव में उपयोगयुक्त हो कर कर्मजनित रागादि भावों को अपना मानना पर-समय है। (II) अन्य दर्शन, धर्म, मत या परम्परा के सिद्धान्त का नाम भी 'पर-समय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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