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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४७५ * पर-परिवाद-अन्य जनों, धर्म-सम्प्रदायों या जाति-कौमों के व्यक्तियों के बिखरे हुए गुण-दोषों को कहना पर-परिवाद है। अठारह पापस्थानों में से एक पापस्थान है, जिसका साधु-जीवन में कृत-कारित-अनुमोदितरूप से त्याग किया जाता है। ___ परम भाव जीव (आत्मा)-जीव (आत्मा) का स्वभाव न तो उत्पन्न हुआ है, और न ही कर्मक्षय से प्रादुर्भूत हुआ है, उसे परमभाव से जीव (स्वतः शुद्ध स्वभावी आत्मा) कहा गया है। परमर्षि-केवलज्ञानी जगद्वेत्ता संयत जीव परमर्षि हैं। परम व्रत-मोहकर्म का अभाव हो जाने पर शुद्धोपयोगरूप जो चारित्र होता है, उसे निश्चयदृष्टि से परम व्रत कहा गया है। परम समाधि-वचन के उच्चारण की क्रिया को छोड़ कर = वचनोच्चारण के बिनावीतरागस्वरूप आत्मा का ध्यान करना परम (निर्विकल्प) समाधि होती है। संयम, नियम और तप के आश्रय से जो धर्मध्यान-शुक्लध्यान के द्वारा आत्मा का ध्यान करता है, उसके परम समाधि होती है। . परम सुख-जो सुख 'पर' के सम्बन्ध से रहित होता हुआ एकमात्र आत्मारूप उपादान से सिद्ध हुआ (प्रादुर्भूत) है, स्वयं अतिशयवान् है, बाधारहित है, वृद्धि-हानि से रहित है, विषयों से उत्पन्न नहीं है; प्रतिपक्ष-विरहित है, अन्य किसी भी बाह्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं करता तथा अनुपम और अपरिमित होता हुआ सदा रहने वाला (शाश्वत) है एवं उत्कृष्ट व अनन्त प्रभाव से युक्त है; वही परम सुख है। वही आत्मा का एक स्वभावअनन्त अव्याबाध-सुख अतिशय स्वस्थता-सम्पन्न (परम आनन्द) कहलाता है। ऐसा परम सुख सिद्धात्मा के ही सम्भव है। ___ परम हंस-जैसे हंस मिले हुए नीर और क्षीर को पृथक् कर देता है, उसी प्रकार जो नीर-क्षीर के समान मिले हुए कर्म और आत्मा की भिन्नता का-भेदविज्ञान का अनुभव करता है, वह परम हंस है, किन्तु जो अग्नि के समान सर्वभक्षक है, वह परम हंस नहीं हो सकता। ___परमाणु-जो आदि, मध्य और अन्त से रहित, अप्रदेश (दूसरे प्रदेश से सर्वथा रहित), इन्द्रियों से अग्राह्य, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त मूर्त होते हुए भी अविभाज्य हो, (अविभक्त) उसे जिनेन्द्र परमाणु-पुद्गल कहते हैं। यह पुद्गलास्तिकाय का एक अंग है। परमात्मा-जो सर्वदोषों से रहित हैं, अनन्त ज्ञानादिरूप परम ऐश्वर्य से युक्त परमेश्वर हैं, ऐसे शुद्ध आत्मा को परमात्मा कहते हैं; वह चिदानन्दमय है, निर्लेप, निष्कल, शुद्ध निर्विकल्प, निर्वाण-प्राप्त सिद्ध-परमात्मा हैं। वे परमार्थभूत अष्टविध शुद्धात्म गुणों से युक्त, अनन्त गुणभाजक सर्वोपाधिरहित परमात्मा हैं। दूसरे- जीवन्मुक्त सशरीरी सयोगीकेवली अरिहन्त परमात्मा हैं-जो केवलज्ञान-दर्शन से युक्त हैं, संसारी जीवों से पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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