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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४५१ * जीवास्तिकाय-जीवराशि, जीव-समूह। जीवद्रव्यों का समूह। जीव-निकाय-जीवराशि। जीवस्थान-कर्मविशुद्धि के तारतम्य की अपेक्षा से जीवों के उत्तरोत्तर विशुद्ध १४ स्थान, जिन्हें गुणस्थान भी कहते हैं। जीवाणु-आँखों से न दिखाई देने वाले क्षुद्र प्राणी, जो अणुवीक्षण यंत्र से दिखाई देते हैं। जीव-पुद्गलबन्ध-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस् और कार्मणवर्गणाओं का और जीवों का जो बन्ध होता है, वह जीव-पुद्गलबन्ध कहलाता है। जीवबन्ध-(I) जिस कर्म के निमित्त से एक शरीर में स्थित अनन्तानन्त निगोद जीवों का जो परस्पर बन्ध होता है, उसे जीवबन्ध कहते हैं। (II) अमूर्त ज्ञान, दर्शन, सुख एवं वीर्यादि स्वभाव वाले जीव का जो राग-द्वेष-मोहरूप पर्यायों के साथ औपाधिकरूप से एकत्व-परिणाम होता है, उसे (केवल) जीवबन्ध कहते हैं। जीवाजीवविषयबन्ध-जीव के साथ कर्म और नोकर्म के बन्ध को जीवाजीवविषयबन्ध कहते हैं। जीवसमास--(I) जीवों का जहाँ संक्षेप (संक्षिप्त विश्लेषण) किया जाता है, वे (चौदह गुणस्थान) जीवसमास कहलाते हैं। (II) जिनके द्वारा अनेक प्रकार के वर्गीकरण का तथा उनकी विविध जातियों का परिज्ञान होता है, उन अनेक अर्थों के संग्राहकों को जीवसमास कहते हैं। जीवविचय (धर्मध्यान का एक प्रकार)-जिसमें विविध पहलुओं से जीव के स्वभाव का चिन्तन किया जाता है। जीव-अदत्त-स्वामी के द्वारा दिया गया भी स्वयं जीव के द्वारा नहीं दिया गया हो, वह जीव-अदत्तादान नामक दोष है। जीविताशंसा-संलेखना-संथारा कर लेने पर भी लोगों के द्वारा अपनी प्रशंसा, प्रसिद्धि, कीर्ति आदि सुन कर अधिक जीने की-अपने नश्वर-हेय शरीर को स्थिर रखने की आकांक्षा, वृत्ति या उत्सुकता को जीविताशंसा या जीविताशंसा-प्रयोग कहते हैं। यह संलेखनाव्रत का एक अतिचार है। जुगुप्सा-(I) जिस कर्म के उदय से अपने दोषों का संवरण और पर के दोषों का प्रकाशन किया जाता है, उसे जुगुप्सा-नोकषाय (मोहनीय) कर्म कहते हैं। (II) जिस कर्म के उदय से आभ्यन्तर-बाह्य दुर्गन्धयुक्त या मलिन द्रव्यों अथवा अशुचि पदार्थों के प्रति या शुभ-अशुभ पदार्थों के प्रति जुगुप्सा (घृणा) की जाती है, उसे भी जुगुप्सा कहते हैं। यह सम्यक्त्व का एक अतिचार भी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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