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________________ * ४५० * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * जिन-जिनेन्द्र-(ID जिन्होंने क्रोधादि कषायों को जीत लिया है, वे। (II) राग-द्वेष, कषाय, इन्द्रिय, परीषह, उपसर्ग तथा अष्टविध कर्मों को जिन्होंने जीत लिया है; वे . जिनदेव, अरिहन्त, जिनेश आदि भी कहलाते हैं। जिनकल्प-जो उत्तम संहननधारक मुनि राग-द्वेष-मोह-विजेता होते हैं। उपसर्ग-परीषहों को सहन करते हैं, एकाकी, असहाय, संघरहित हो कर विहरण करते हैं। वे शिष्य नहीं बनाते, ग्यारह अंगशास्त्रों के धारक, धर्म-शुक्लध्यान में रत, मौनव्रती, निःस्पृह व बाह्याभ्यन्तर परिग्रहरहित होते हैं। जिह्वेन्द्रिय-व्यञ्जनावग्रह-मतिज्ञान का एक भेद। जिस इन्द्रिय द्वारा बद्ध, स्पृष्ट और प्रविष्ट हो कर अंग-अंगीभावगत सम्बन्ध को प्राप्त हुए तीखे, कड़वे, कसैले, आम्ल और मधुर रस वाले पदार्थों के रस का ज्ञान होता है, उसे जिह्वेन्द्रिय-व्यञ्जनावग्रह कहते हैं। जिह्वेन्द्रिय-व्यंजनावग्रहावरणीय-जिह्वेन्द्रिय का आवरक कर्म। जिह्वेन्द्रिय-अर्थावग्रह-(I) उत्कृष्ट क्षयोपशम को प्राप्त हुई जिह्वेन्द्रिय से इतने अध्वान का अन्तर करके संज्ञी पंचेन्द्रिय आदि जीवों में यथासम्भव उक्त इन्द्रिय के विषयभूत क्षेत्र की दूरी पर स्थित द्रव्य के रसविषय का जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह। (II) मतिज्ञान का एकभेद। जिह्वेन्द्रिय-अर्थावग्रहावरणीय-जिह्वेन्द्रिय-अर्थावग्रह का आवरक कर्म। जिह्वेन्द्रिय-ईहाज्ञान-मतिज्ञान का एक भेद। जिह्वेन्द्रिय द्वारा रस को ग्रहण करके वह मूर्त है या अमूर्त? दुःस्वभाव है या अदुःस्वभाव ? क्या वह जात्यन्तर अवस्था को प्राप्त हैं ? इस प्रकार के विचार के आश्रित जो ज्ञान होता है, वह जिह्वेन्द्रिय-ईहाज्ञान है। जिह्वेन्द्रिय-ईहाज्ञानावरण-जिह्वेन्द्रिय-ईहाज्ञान का आवरक कर्म। जिह्वेन्द्रियावायज्ञान-जिह्वेन्द्रिय-ईहाज्ञान से जाने गए हेतु के बल से किसी एक ही विकल्प-विषयक निश्चयात्मक ज्ञान का उत्पन्न होना। । जिह्वेन्द्रियावायज्ञानावरणीय-जिह्वेन्द्रिय-अवायज्ञान का आवरक कर्म। जीतव्यवहार-जीत कहते हैं-परम्परागत आचार-व्यवहार, रीति-रिवाज, प्रथा या रूढ़ि को, अथवा प्रायश्चित्त से सम्बद्ध एक प्रकार के रिवाज, या जैनसूत्रोक्त रीति से विभिन्न प्रकार के परम्परागत आचार को। व्यवहार कहते हैं-उक्त परम्परागत आचारानुसार बर्तन या व्यवहार को। जीव-(I) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग, ये जीव के लक्षण है। (II) द्रव्यप्राण, भावप्राण को धारण करने में समर्थ सचेतन द्रव्य। (III) (संसारी जीव) द्रव्यभाव कर्मों के आम्रवादि का स्वामी (प्रभु), कर्मों का कर्ता, भोक्ता, प्राप्त शरीर के प्रमाण, कर्म के साथ होने वाले एकत्व-परिणाम की अपेक्षा मूर्त और कर्म से संयुक्त है। (IV) ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख से लक्षित होने के कारण जीव का लक्षण उपयोग है। (V) इसे आत्मा, चेतन, प्राणी भी कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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