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________________ * ४४८ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * (छ) छद्म-यथावस्थित आत्म-स्वरूप को आच्छादित करने वाले ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मों को छद्म कहते हैं। छद्मस्थ-ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म का नाम छद्म है। इस छद्म में जो रित है, वह छद्मस्थ है। अर्थात् जब तक केवलज्ञान-केवलदर्शन न हो, तब तक मनुष्य छद्मस्थ कहलाता है सर्वज्ञता प्राप्त न हो, वहाँ तक छद्मस्थ अवस्था है। छन्दना-दशविध समाचारी का एक प्रकार। मैं यह आहार आदि लाया हूँ. आपमें से किसी की इच्छा हो तो ग्रहण करें, इस प्रकार से शेष साधुओं को छन्दना (विनति) करना। छंदोनिरोध-(I) स्वच्छन्दता का निरोध करना। (II) गुरु-आज्ञा (छन्द) के अनुसार इन्द्रियों और मन का निग्रह करना। (III) छन्द = आज्ञा के अनुसार आचरण करना, यह छन्दोनिरोध का अभिप्राय है। गुरु के छन्द (अभिप्राय) के अनुसार वर्तन (सेवादि) करना छन्दोऽनुवर्तन नामक औपचारिक विनय का प्रकार है। छविच्छेद-करवत आदि से या किसी शस्त्र से निष्प्रयोजन ही अपने अधीनस्थ पशु या ' मानव के शरीर के अवयव का छेदन करना। यह श्रावक के प्रथम अणुव्रत का अतिचार है। छेद-जिस साधु ने महाव्रत स्वीकार किये हैं, उससे कोई बड़ा अपराध (महाव्रत-भंग आदि) किया हो, उस साधु का दिन, पक्ष या मास आदि के विभाग से एक दिन से ले कर उत्कष्ट छह मास तक की दीक्षा-पर्याय का छेद करना (काट लेना, कम कर देना) छेदप्रायश्चित्त कहलाता है। छेदार्ह (प्रायश्चित्त का एक भेद)-जिस प्रकार अनेक प्रकार की व्याधि से दूषित शरीर के किसी अवयव का शेष शरीरावयवों के रक्षणार्थ छेद किया जाता है, उसी प्रकार जिसका सेवन करने पर दूषित हुई पूर्व पर्याय में-श्रामण्य काल का कुछ अंश में-दिन, पक्ष, मास आदि के क्रम से छेद कर दिया जाता है-कम कर दिया जाता है, वह छेदाई प्रायश्चित्त है। यह दस प्रकार के प्रायश्चित्त में से एक है। ___ छेदोपस्थापन चारित्र-जिस चारित्र में पूर्व पर्याय को छेद कर महाव्रतों को स्थापित किया जाता है, अथवा व्रत का भंग होने पर पुनः पुनः व्रत या व्रतों का उप स्थापन करके चारित्र की विशुद्धि की जाती है। जगत्-(I) जो चराचर (स्थावर-जंगम) पदार्थों से परिपूर्ण है तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप अवस्था जिसका लक्षण है, उसे जगत् कहते हैं। (II) चेतन-अचेतन द्रव्यों के समुदाय को जगत् कहते हैं। जगत्स्वभाव-देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारक आदि अवस्थाओं का बार-बार प्राप्त किया जाना जगत् (संसार) है, उसमें प्राणियों का इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग, इच्छित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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