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________________ पारिभाषिक शब्द - कोष * ४३५ * कार्मणशरीरबन्धन-नाम-जिस कर्म के उदय से कार्मणशरीर गत परमाणु परस्पर बन्ध को प्राप्त होते हैं, उसे कार्मणशरीरबन्धन - नामकर्म कहते हैं। कार्मणशरीरसंघात-नाम-जिस बन्धननामकर्म के उदय से एकबन्धनबद्ध हो कर शरीररूपता को प्राप्त कार्मणशरीर के स्कन्ध जिस कर्म के उदय से मृष्टता चिक्कणता या एकरूपता को प्राप्त होते हैं, उसे कार्मणशरीरसंघात-नामकर्म कहते हैं। काल - (I) छह द्रव्यों में से एक द्रव्य । (II) ५ वर्ण, ५ रस, २ गन्ध, ८ स्पर्श से रहित और छह प्रकार की हानि - वृद्धिस्वरूप अगुरुलघु गुण से संयुक्त हो कर वर्तना-स्वयं परिणमते हुए द्रव्यों के परिणमन में जो सहकारिता - लक्षण वाला है, वह काल नामक द्रव्य है। (III) काल का अर्थ समय, वक्त, परिस्थिति भी है । (IV) काल का अर्थ मृत्यु भी है। जिससे भूत, भविष्य, वर्तमान का व्यवहार होता है, घड़ी, घंटा, क्षण, लव, पक्ष, सप्ताह, मास, वर्ष आदि का व्यवहार होता है, वह काल है। = काल-ज्ञानाचार - ज्ञानाचार का एक अंग, जिसका अर्थ है-अंग प्रविष्ट आदि जिस श्रुत का जो स्वाध्यायकाल कहा गया है, उसी में उसका स्वाध्याय करना, अन्य काल में न करना। कालातिक्रम-श्रावक के १२ वें व्रत का एक अतिचार । उत्कृष्ट अतिथिरूप साधु को आहार देने का जो (भिक्षा समय) काल है, उसका उल्लंघन करके स्वयं आगे या पीछे आहार कर लेना और बाद में भिक्षार्थ आने पर निषेध कर देना । कांक्षामोहनीय-मोहकर्मवश मतान्तर, अर्थान्तर आदि की आकांक्षा करना । किल्विषक - किल्विष कहते हैं पाप को । पाप से युक्त अन्त्यवासियों या अन्त्यजों के समान देव किल्विषिक कहलाते हैं। किल्विषिक भावना - केवलज्ञानी, श्रुत (शास्त्र), धर्मसंघ, अरिहंत-सिद्ध देवाधिदेव या पंचविध देव, आचार्य एवं धर्म का अवर्णवाद ( निन्दा) करना, इनका प्रत्यनीक (विरोधी), कुटिल (मायायुक्त), औपचारिक विनयभक्ति का दिखावा, दोषदर्शन या दोषाविष्करण, ये किल्विषिक भावनाएँ हैं। इन और ऐसे किल्विषिक भावनायुक्त कर्म से जीव किल्चिषिक देवों में उत्पन्न होता है। कीलिकासंहनन - मर्कटबन्ध ( नाराचबन्ध) के बिना जिसकी हड्डियों के मध्य में सिर्फ . कील होती है, उसे कीलिकासंहनन कहते हैं। कुदृष्टि (I) जो अपने मति श्रुतज्ञान के दर्प से अपने कथन को जिनोक्त कह कर स्वच्छन्द कथन करे, उसे कुदृष्टि कहते हैं। (II) जो सात भयों से युक्त हो। (III) या मिथ्यादृष्टि हो, वह कुदृष्टि है। - कुदेव - जो राग-द्वेष-मोह के चिह्नभूत स्त्री, शस्त्र, अक्षसूत्र ( जपमाला) और राग-द्वेषादि से कलंकित हो कर दूसरों का निग्रह और अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं, वे • कुदेव हैं, जो सर्वकर्ममुक्ति के कारण नहीं हो सकते। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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