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________________ * ४०४* कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट अवगाढ़ - ढका हुआ, आच्छादित, आश्रित, अधिष्ठित या व्याप्त । अवगाढ़ रुचि-आचारांगादि द्वादशांग के अध्ययन से जो दृढ़ श्रद्धान होता है, वह अवगाढ़ रुचि या अवगाढ़ सम्यक्त्व होता है। अवधिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना जो ज्ञान मूर्त पदार्थों को अमुक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सीमा में जानता है, वह अवधिज्ञान है। अवमौदर्य (ऊनोदरी)-छह प्रकार के बाह्य तपों में से दूसरा तप । स्वाभाविक आहार से क्रमशः एक, दो आदि ग्रास कम ग्रहण करना । भोजन की तरह वस्त्र, पात्र तथा उपकरण आदि तथा कषायादि की न्यूनता के रूप में भाव - अवमौदर्य तप भी हो सकता है। अवर्णवाद-देव, गुरु, धर्म या अन्य किसी भी व्यक्ति की निन्दा, पर-परिवाद करना। महान् गुणीजनों में जो दोष नहीं हैं, उनको अन्तरंग कलुषता से प्रगट करना अवर्णवाद है। इस पापकर्म से महामोहकर्म बँधता है। अवसन्न-(I) समाचारी के विषय में प्रमादयुक्त साधु या साध्वी । (II) जिन-वंचन से अनभिज्ञ होकर ज्ञान और चारित्र (आचरण) से भ्रष्ट होता हुआ इन्द्रिय-विषयासक्त श्रमण अवसन्न है। अवगाहना - (I) आधारभूत आकाशक्षेत्र, (II) शरीर - परिमाण, (III) शरीर की ऊँचाई, लम्बाई, चौड़ाई, (IV) अवस्थान- अवस्थिति । अवगाहना नामकर्म-नामकर्म का एक भेद, जिसके उदय से जीव को कर्मोदयानुसार अवगाहना मिले। अवतार - (I) नीचे उतरना, या उतारना, (II) अवतार, (III) देहान्तर धारण, (IV) उत्पत्ति या जन्म, (V) समावेश । अवतारवाद - ऊपर से सीधे ही जीव का ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में नीचे उतरना = जन्म लेना और बिना ही करणी के श्रेष्ठ मानव के रूप में माना जाना । अवतीर्ण - नीचे उतरा हुआ, जन्मा हुआ। अवसर्पिणी (कालचक्र के छह आरों का एक विभाग ) - जिस काल में जीवों के अनुभव, आयु, शरीरपरिमाण, बल, बुद्धि आदि घटते जाते हैं, वह काल । अवधारणा - दीर्घकाल तक याद रखने की शक्ति । अवधारण = निश्चय या निर्णय करना । अविद्या - अनित्य, अनात्म (आत्म- बाह्य अचेतन), अशुचि और दुःखरूप समस्त पदार्थों में नित्य,सात्म, शुचि और सुखरूप विपरीत बुद्धि या विपरीत मान्यता अविद्या है। = अविग्रहगति-विग्रहगति-विग्रह का अर्थ है - रुकावट, मोड़ या वक्रता ( कुटिलता ) । जो गति वक्रता, कुटिलता या मोड़ से युक्त होती है, वह विग्रहगति है, और इसके विपरीत जो मोड़ या वक्रता से रहित एक समय वाली ऋजुगति या इषुगति हो, वह अविग्रहगति होती है। · Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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