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* पारिभाषिक शब्द - कोष * ४०३ *
अर्थावग्रह-व्यंजनावग्रह- ये दोनों मतिज्ञान - श्रुतज्ञान के द्वारा जानने के स्तर हैं। पदार्थ का अव्यक्त ज्ञान अर्थावग्रह है । व्यंजनावग्रह के अन्तिम समय में गृहीत शब्दादि अर्थ के अवग्रहण (बोध) = सामान्य अवबोध को अर्थावग्रह कहते हैं ।
अर्थापत्ति-प्रत्यक्षादि ६ प्रमाणों के द्वारा जाना गया अर्थ जिस अदृष्ट पदार्थ के बिना सम्भव न हो, उस अदृष्ट की कल्पना जिस प्रमाण में की जाती है, उसका नाम अर्थापत्ति है। जैसे-नीचे जलप्रवाह देखकर ऊपर हुई अदृष्ट वृष्टि की कल्पना ।
अर्द्धनाराच-चतुर्थ संहनन। जिस शरीर रचना में एक ओर मर्कट . न्ध हो और दूसरी ओर कील हो, वह अर्धनाराच होता है।
अर्थक्रियाकारिता- पूर्व आकार का परित्याग (व्यय), उत्तर आकार का ग्रहण ( उत्पाद) और अवस्थान (ध्रौव्य ) - स्वरूप परिणाम के कारण प्रत्येक वस्तु में अर्थक्रियाकारिता होती है।
अर्थदण्ड - क्षेत्र, वास्तु, धन, शरीर और परिजन आदि से सम्बन्धित गृहस्थ का जो प्रयोजन (अर्थ) होता है, उसे सिद्ध करने हेतु प्राणिपीड़ाजनक आरम्भ ( दण्ड ) होता है, वह अर्थ (सार्थक - सप्रयोजन) दण्ड कहलाता है।
अलाभ-परीषहजय-अन्तराय कर्म के उदय से आहारादि का लाभ न होने पर भी लाभवत् सन्तुष्ट हो कर उसे समभाव से सहन करना अलाभ-परीषह-विजय है।
अलीक - जो सच्चे साधु को असाधु और असाधु को साधु कहता है, वह अलीकरूप असत्य वचनभाषी होता है। इसी प्रकार सिद्धान्त या जिन-वचन से निरपेक्ष, एकान्त कथन करना, उत्सूत्र भाषण करना, सद्भाव-प्रतिषेध, अभूतोद्भावन, गर्हा-असत्य, भूत (अतीत में घटित ) को छिपाना (निह्नव करना), मिथ्या अर्थ बताना, अनुमान से भी असत्य कथन आदि सब असत्य (अलीक) के प्रकार हैं । स्थूल मृषावाद के भी पाँच कारण हैंकन्यालीक, गवालीक, भूम्यलीक, न्यासापहार एवं कूटसाक्षी । .
अलेश्य-कृष्णलेश्या आदि षड्विध लेश्याओं से रहित जीव (अयोगीकेवली और सिद्ध) अलेश्य या अलेश्यी हैं।
अलोक - लोक से बाहर सब ओर जितना भी अनन्त आकाश है, वह सब अलोकाकाश कहलाता है।
अल्पतर बन्ध, उदय, उदीरणा - वर्तमान में जितनी प्रकृतियों की बन्ध, उदय, उदीरणा हो रही है, अनन्तर समय में परिणाम - विशेष से एक आदि से न्यून प्रकृतियों का बन्ध, उदय और उदीरणा - विशेष का होना ।
अवाय-मतिज्ञान का भेद, जिसमें ईहा से जाने हुए पदार्थ में यह वही है, दूसरा नहीं, ऐसा निश्चयात्मक ज्ञान होना ।
अवग्रह - मतिज्ञान का भेद । विषय और विषयी (ज्ञाता) के सम्बन्ध से नाम, जाति आदि विशेष बोध से रहित सामान्य सत्तामात्र का स्वरूपमात्र बोध या आभास होना अवग्रह कहलाता है।
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