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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४०१ * अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग-जीवादि पदार्थों के स्व-स्वरूप को जानने रूप सम्यग्ज्ञान में सतत उपयोगयुक्त रहना। अभेद भ्रम-शरीर और आत्मा में अभेद (भिन्नता नहीं) है, ऐसी भ्रान्ति। अभेद ध्रुवदृष्टि-द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से ग्रहण की हुई सत्ता (सामान्य) से अभिन्न अनन्तधर्मात्मक वस्तु को ग्रहण करने की ध्रुव (निश्चल) दृष्टि। अभ्याहृत (आहार-दोष)-अपने ग्राम, घर आदि से साधु के निमित्त लाया हुआ उक्त दोषयुक्त आहार। ___ अभ्याख्यान-जिसमें जो दोष नहीं है, उसका उसमें झूठमूठ आरोपण-मिथ्या दोषारोपण, कलंक अभ्याख्यान है। ___ अभ्युत्थान-गुरु आदि के आने-जाने पर उनके सम्मानार्थ अपना आसन छोड़ कर खड़े हो जाना, सामने जाना। अभ्युत्थित-जागरूक, उद्यत, तैयार रहना, तत्पर रहना। अभौतिक-भौतिकतारहित आध्यात्मिक पदार्थ। अमर-जो जन्म-मरण से रहित हों, ऐसे सिद्ध-परमात्मा। देव का पर्यायवाचीशब्द। अमनस्क (जीव)-द्रव्य-मनरहित असंज्ञी जीव। अमनोज्ञ-विष, कण्टक शत्रु आदि-आदि बाधा के कारण अप्रिय पदार्थ या व्यक्ति। अमनोज्ञ-सम्प्रयोग-सम्प्रयुक्त आर्तध्यान-अनिष्ट वस्तुओं का संयोग होने पर उनके वियोग की चिन्ता करना कि 'इन अनिष्ट वस्तुओं से संयोग कब छूटेगा?' अमित्रक्रिया-पिता आदि के द्वारा स्वल्प अपराध होने पर भी तीव्र दण्ड देना द्वेषलक्षणा अमित्रक्रिया है। अमूढदृष्टि-(I) देव, गुरु और धर्म के प्रति जिसकी दृष्टि मोह-मूढ़ता से रहित, तत्त्वार्थदर्शिनी है, वह अमूढ़दृष्टि है। दोषदृष्ट शास्त्रों, तपस्वियों और देवों तथा अन्य वादियों-मतावलम्बियों का आडम्बर देख कर जिसकी दृष्टि, चित्त, बुद्धि मोहित नहीं होती, वह। (II) जो संन्मार्गसम प्रतीत होने वाले, मिथ्यादर्शनादियुक्त मिथ्या मार्गों में परीक्षारूप नेत्रों के द्वारा युक्तिहीन जान कर उनमें मुग्ध नहीं होता, वह। अमूर्त (I) अल्पज्ञ जिन विषयों को इन्द्रियों से ग्रहण कर सकते हैं, वे मूर्त और उनसे भिन्न शेष सब अमूर्त जानने चाहिए। (II) नाम और गोत्रकर्मों का क्षय हो जाने पर रूपादिमयी मूर्ति (शरीरादि आकृति) से रहित मुक्त जीव भी अमूर्त कहलाते हैं। अमूर्त्तत्त्व-मूर्तता का अभावरूप गुण अमूर्तत्त्व है। अर्थात् जिसमें रूपरहितता और निराकारता हो, वह अमूर्तत्त्व है। अमूर्तिक-अरूपी पदार्थ, जिनमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं होते; ऐसे अपौद्गलिक पदार्थ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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