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________________ * ४०० * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * ___अबाधा-अबाधाकाल-कर्म बँधने के पश्चात् जितने काल तक उदय में नहीं आता, सत्ता में पड़ा रहता है, उतने काल तक वह आत्मा को किसी प्रकार की बाधा नहीं' पहुँचाता, अतः उस दशा को अबाधा कहा जाता है तथा कर्मबन्ध होने से लेकर उदय में । आकर वह शुभाशुभ फल चखाने यानी फल का वेदन कराने को उद्यत नहीं होता, तब तक का वीच का काल अबाधाकाल कहलाता है। जिस कर्म की उत्कृष्ट स्थिति जितने कोटाकोटि सागर-प्रमाण होती है, उस कर्म का उतने ही सौ वर्ष का उत्कृष्ट अबाधाकाल होता है। - अबुद्ध जागरिका-ईर्यासमिति और भाषासमिति से युक्त · गुप्त ब्रह्मचारी (नौ ब्रह्मचर्यगुप्तियों से संरक्षित) साधु अबुद्ध जागरिका से जाग्रत होते हैं। अबुद्धिपूर्वा निर्जरा-नरकादि गतियों में कर्मों के उदय से फल को भोगते हुए जो कर्म झड़ते हैं, उसे अबुद्धिपूर्वा या अकुशलानुबन्धा निर्जरा कहते हैं। ___ अब्रह्म-अब्रह्मचर्य-वेदनोकषाय मोहनीय कर्मोदय से स्त्री-पुरुष-नपुंसक में जो परस्पर स्पर्शादि की इच्छा, तदनुरूप वचनप्रवृत्ति तथा क्रिया होती है, उस मैथुन (मिथुन-कर्म) को अब्रह्म कहते हैं। उक्त अब्रह्म (ब्रह्म = आत्मा के अतिरिक्त इन्द्रिय-मन के विषयों) में आसक्तिपूर्वक रमण करना अब्रह्मचर्य है। अबहुश्रुत-जिसने आचारकल्प का अध्ययन नहीं किया है या पढ़कर भी भुला दिया है, वह अबहुश्रुत कहलाता है। अभयदान-सूक्ष्म और बादर जीवों की अपनी शक्ति-प्रमाण रक्षा करना, उन्हें कष्ट न पहुँचाना अभयदान है। ___ अभ्युदय-पूजा-प्रतिष्ठा, धन-सम्पत्ति, आज्ञा, ऐश्वर्य, बल, परिजन और कामभोग आदि का प्रचुरता से प्राप्त होना। अभव्य-ऐसे जीव, जिन्हें कदापि सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। मोक्ष- प्राप्ति के अयोग्य जीव। अभिगम रुचि-जिसने अर्थरूप में ग्यारह अंग, प्रकीर्णक और दृष्टिवादरूप सकल श्रुतज्ञान का अभ्यास रुचिपूर्वक किया है। अभिगृहीत-दूसरों के उपदेश से ग्रहण किया हुआ मिथ्यात्व। अभिध्या-प्राणियों के विषय में सदैव अभिद्रोहपूर्वक चिन्तन करना अभिध्या है। जैसे-'इसके मर जाने पर हम सुख से रह सकते हैं।' अभिनिबोध (ज्ञान)-अर्थाभिमुख होकर नियत विषय का बोध = ज्ञान होना। अभिमान-मानकषायोदयवशात् अन्तःकरण में उदय होने वाला अहंकार, गर्व या मद। अभिन्नदशपूर्वी-जिन्हें दशपूणे तक का ज्ञान सूत्र, अर्थ और व्याख्या-सहित कण्ठस्थ हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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