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________________ * ३४४ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * २१५, निश्चयदृष्टि से एकत्वानुप्रेक्षा का चिन्तन कैसे करें? २१७, दो का संयोग दुःखकारक, एकाकी में कोई दुःख नहीं २१८, क्या अकेला रहना व्यवहार्य होगा? २१८, समूह में रहता हुआ भी अकेला रहे तो कैसे रहे? २१९, एकत्वानुप्रेक्षक कर्तव्य और दायित्व से भागे नहीं २१९, एकत्वानुप्रेक्षा का ठोस परिणाम २२०। (१३) आत्म-रमण में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ पृष्ठ २२१ से २४२ तक (५) अन्यत्वानुप्रेक्षा : स्वरूप, उपाय और परिणाम २२१, शरीर और आत्मा दोनों भिन्न-भिन्न हैं २२१, शरीरादि का अभिमान समझने से हानि २२२, शरीरादि को आत्म-बाह्य कैसे समझें ? २२२, आत्मा को शरीरादि से भिन्न मानने पर भी शरीरादि के प्रति उपेक्षा नहीं २२३, नौका और नाविक है-शरीर और आत्मा : एक चिन्तन २२३, शरीर और आत्मा को भिन्न और अभिन्न मानने की दृष्टि २२४, अन्यत्वानुप्रेक्षा से संवर और निर्जरा का लाभ २२५, अन्यत्वानुप्रेक्षा के लिए जागृति और सावधानी की प्रेरणा २२५, स्वजन भी स्व-जन नहीं, ममत्व के कारण दुःखभाजन २२५, आत्म-बाह्य कोई भी पदार्थ मेरा नहीं, अन्यत्व-चिन्तन है २२६, मृगापुत्र ने अन्यत्वभावना से आत्मा को भावित कर लिया था २२६, अन्यत्वानुप्रेक्षक के आध्यात्मिक व्यक्तित्व में भौतिक व्यक्तित्व से अन्तर २२७, शरीर को अन्य समझने पर निर्जरा लाभ २२७, (६) अशुचित्वानुप्रेक्षा : एक चिन्तन २२७, अशुचित्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन २२७, अशुचिमय यह शरीर प्रीति योग्य कैसे हो सकता है ? २२७, शरीर की अशुचिमयता २२८, अशुचित्वानुप्रेक्षा का विधायक रूप २२९. शरीर के ऊपरी भाग को न देखकर आन्तरिक भाग को देखो २३०. समशरीर के दुरुपयोग और सदुपयोग से हानि-लाभ २३०, कार्मणशरीर का रहस्य जान लेने पर बन्ध भी कर सकता है, संवर भी २३१, सनत्कुमार चक्रवर्ती की अशुचित्वानुप्रेक्षा २३१, (७) आनवानुप्रेक्षा : क्यों, क्या और कैसे ? २३२, आस्रव का स्वरूप, प्रकार और अनिष्टकारकता २३२, साम्परायिक आस्रव से होने वाली आत्म-गुणों की भयंकर क्षति २३२, त्रियोगों की तीव्र चंचलता के कारण कर्मबन्ध : एक उदाहरण २३३, आस्रव के बयालीस भेद और अशुभानवों से विविध दुःख-प्राप्ति २३४, आम्रवों से संचालित कितना परवश? २३५, आम्रवानुप्रेक्षा से अनन्त चतुष्टयी का प्रकटीकरण २३५, समुद्रपाल मुनि द्वारा आसवानुप्रेक्षा से कर्ममुक्ति २३६, (८) संवरानुप्रेक्षा : स्वरूप, लाभ और उपाय २३६, कर्मों से आत्मा की रक्षा करना संवर है २३६, भेदविज्ञान सिद्ध होने पर शुद्ध चैतन्यानुभूति २३७, आत्म-ज्ञानरमणता ही संवर का विधेयात्मक कार्य २३७, शुद्ध उपयोग में रहने से संवर की स्थिति सुदृढ़ २३८, व्यवहारदृष्टि से आम्रवों का निरोध : संवर २३८, संवर-साधना का चरम शिखर : अयोग-संवर २३९, अयोग-संवर आदि के लिए सुगम उपाय २४०, मनोगुप्ति से सर्वांगीण संवर की प्राप्ति २४१, संयम से संवर की उत्कृष्ट आराधना २४१, संवरानुप्रेक्षा का सुफल हरिकेशबल मुनि ने प्राप्त किया २४२। (१४) भाव-विशुद्धि में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ पृष्ठ २४३ से २६८ तक (९) निर्जरानुप्रेक्षा : क्यों, क्या और कैसे ? २४३, संवरानुप्रेक्षा के पश्चात् निर्जरानुप्रेक्षा : क्यों, कैसे? २४३, निर्जरानुप्रेक्षा से सर्वतोमुखी शुद्धि २४४, अवचेतन मन में संचित रागादि संस्कारों का रेचन निर्जरा द्वारा ही संभव २४४, निर्जरा का विशद स्वरूप, कार्य और प्रकार २४५, उसी की निर्जरा सार्थक होती है २४५, निर्जरा के प्रकार, स्वरूप और निर्जरानुप्रेक्षा २४६, निर्जरा के मूल कारण : द्वादशविध तप २४७, उत्कृष्ट निर्जरा : कैसे-कैसे और किस क्रम से? २४७, अधिकाधिक निर्जरा के अवसर २४८, पापिष्ट अर्जुनमाली ने निर्जरानुप्रेक्षा से मोक्ष प्राप्त किया २४८, आलोचना-निन्दना-गर्हणा एवं आत्म-चिन्तन से महानिर्जरा २४९, (१०) लोकानुप्रेक्षा : एक अनुचिन्तन २५0, लोकानुप्रेक्षा : क्यों, क्या और कैसे ? २५0, लोकानुप्रेक्षा का उद्देश्य २५0, लोकानुप्रेक्षा से लाभ २५१, शिवराजर्पि को लोकस्वरूपभावना से मोक्ष की उपलब्धि २५५, (११) बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा : एक चिन्तन २५६, इस जगत् में दुर्लभतम वस्तु बोधि है २५६, बोधिदुर्लभतम : क्यों और कैसे? २५७, बोधि : जीवन का परम ध्येय : किसको सुलभ, किसको दुर्लभ? २५८, बोधि के विविध अर्थ और विशेषार्थ, परमार्थ २५९, भगवान ऋषभदेव के अट्ठानवे पुत्रों द्वारा की गई बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा २६०, (१२) धर्मानुप्रेक्षा : क्या, क्यों और कैसे ? २६१, धर्म की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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