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________________ * विषय-सूची : छठा भाग * ३४३ * लक्षण १६८, (६) उत्तम संयम धर्म स्वरूप, प्रकार और उपाय १६९, संयम का लक्षण १७०, पंच-अनुत्तरवासी देवों के संयम क्यों नहीं ? १७२, आन्तरिक वृत्ति की पवित्रता ही संयम, बाह्य प्रवृत्ति कम करना मात्र नहीं १७२, (७) उत्तम तप: स्वरूप, प्रकार और उपाय १७३, (८) उत्तम त्याग : एक अनुचिन्तन १७४, त्याग धर्म की महिमा और परिभाषा १७४, त्याग क्या है, क्या नहीं ? : दान और त्याग में अन्तर १७४, त्याग धर्म के अन्तर्गत विविध प्रत्याख्यान १७५, (९) उत्तम आकिंचन्य-धर्म : एक अनुचिन्तन १७५, आकिंचन्य धर्म का अर्थ और तात्पर्य १७५, वस्तु परिग्रह नहीं, वस्तु के प्रति मूर्च्छा परिग्रह है १७६, (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य : एक अनुचिन्तन १७७, ब्रह्मचर्य आध्यात्मिक जीवन के विकास का मेरुदण्ड है, इसके बिना दूसरे व्रत निःसार हैं, फीके हैं १७७, व्यवहारदृष्टि से ब्रह्मचर्य का लक्षण १७८, निश्चय-ब्रह्मचर्य - सापेक्ष व्यवहार - ब्रह्मचर्य - साधना से संवर - निर्जरा १७८ । (११) संवर और निर्जरा की जननी भावनाएँ और अनुप्रेक्षाएँ पृष्ठ १७९ से १९४ तक सुविचारों और कुविचारों की क्षमता एवं महत्ता १७९, सुविचारों का पुनः पुनः आवर्तन, भावन एवं अनुप्रेक्षण १७९, जैन-कर्मविज्ञान में भावना, अनुप्रेक्षा आदि शब्द एकार्थक हैं १८०, अनुप्रेक्षा के विविध अर्थ और लक्षण १८०, अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन और अभ्यास का फल एवं माहात्म्य १८२, अनुप्रेक्षा से विशिष्ट आध्यात्मिक लाभ १८२, कर्मबन्ध के चार प्रकार और उनकी अनुप्रेक्षा से परिवर्तन १८४, गाढ़बन्धन कैसे शिथिलबन्धन हो जाता है ? १८४, अनुप्रेक्षा से स्थितिघात और रसघात कैसे जाता है ? १८५, सभी भावनाओं से रासायनिक परिवर्तन १८६, अनुप्रेक्षा मानसिक चिन्तन-सापेक्ष होती है १८६, अनुप्रेक्षा की भावना-शक्ति १८८, प्रबल भावना की धारा से दुःसाध्य रोगी को स्वस्थ कर दिया १८८, अनुप्रेक्षा आध्यात्मिक सजेस्टोलोजी है १८८, अनुप्रेक्षा ब्रेनवाशिंग का काम कैसे करती है ? १८९, शुभ भावनात्मक प्रार्थना या जाप से हृदय परिवर्तन १८९, भावनात्मक अनुप्रेक्षा का माहात्म्य १९०, अनुप्रेक्षा का अपर नाम सखी भावना १९१, सामान्य भावना का भी जादुई असर १९२, भावना के प्रभाव से विष भी अमृत हो गया १९२, भावना से सर्दी-गर्मी में तथा गर्मी-सर्दी में परिवर्तित १९२, साधक की प्रबल भावना से आक्रामक बैल भी शान्त हो जाता है १९२, संत तुकाराम की 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना १९३, भावना, भावितात्मा और भावनायोग की साधना १९३, भावना की सफल साधना के लिए सावधानी और अर्हताएँ १९४। (१२) कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ पृष्ठ १९५ से २२० तक अनुप्रेक्षा के द्वारा ज्ञान आत्मसात् हो जाता है १९५, बारह अनुप्रेक्षाएँ : भवभ्रमण से मुक्ति-प्रदायिनी १९६, (१) अनित्यानुप्रेक्षा: स्वरूप, प्रयोजन और लाभ १९६, शरीर की आसक्ति सभी आसक्तियों का मूल है १९७, अमूढ़दृष्टि, दुःख को जानता है, भोगता नहीं; मूढदृष्टि जानता भी है, भोगता भी है १९७, अनित्यता को जानने से लाभ १९८, अनित्यता को मानने की अपेक्षा जानना महत्त्वपूर्ण है १९९, भरत चक्रवती द्वारा अनित्यानुप्रेक्षा से केवलज्ञान और सर्वकर्ममुक्ति १९९, निश्चयनय की दृष्टि से अनित्यानुप्रेक्षा का चिन्तन २००, कार्लाइल को अनित्यानुप्रेक्षा शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान २०१, (२) अशरणानुप्रेक्षा: क्यों, क्या और कैसे ? २०१, अशरणानुप्रेक्षा से संवर और निर्जरा का लाभ २०२, आत्मा के गुण ही जीव के लिए त्रैकालिक शरण हैं २०३, जन्म- जरा - मृत्यु-व्याधि आदि दुःखों से कौन बचा सकता है? २०३, आत्मा के सिवाय कोई भी शरण या त्राण नहीं दे सकता २०४, अनाथी मुनि ने आत्मा की शरण कैसे स्वीकार की? २०६, हम आत्मा की ही शरण ग्रहण कर रहे हैं, दूसरे की नहीं २०७, अशरणानुप्रेक्षा के चिन्तन से आध्यात्मिक लाभ २०८, (३) संसारानुप्रेक्षा : स्वरूप और उपाय २०८, संसार क्या है, कैसा है, क्यों है? २०८, संसार की विचित्रता के स्वभाव का चिन्तन : संसारानुप्रेक्षा २०९, संसारानुप्रेक्षा का साधक अनुप्रेक्षा किस प्रकार करता है? २१०, पाँच प्रकार का संसार : संसारानुप्रेक्षा के लिए २११, संसारानुप्रेक्षा का फल संवर, निर्जरा और मोक्ष २१२, संसार को दुःखनिधान भयंकर अरण्य मानकर चिन्तन २१३, संसारानुप्रेक्षा से थावच्चापुत्र ने महाश्रमण बनकर मोक्ष प्राप्त किया २१३, (४) एकत्वानुप्रेक्षा : स्वरूप, उपाय और परिणाम २१५, सहायक के परित्याग से एकत्वानुभूति का परिणाम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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