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________________ * विषय-सूची : पंचम भाग * ३३७ * जानने-पहचानने से लाभ ४६८, पाँच भावों को जानना आवश्यक : क्यों और कैसे? ४६९, पाँच भाव : जीव की पाँच अवस्थाएँ ४६९, पाँच भावों में स्वाभाविक-वैभाविक, शुद्ध-अशुद्ध, बन्धक-अबन्धक : कौन-कौन? ४७०, औपशमिक को प्राथमिकता क्यों, औदयिक को क्यों नहीं ? ४७०, औपशमिक भाव : स्वरूप, फल और कार्य ४७१, उपशम किस कर्म का, कौन-कौन-सा और क्यों? ४७२, औपशमिक भाव का परिष्कृत लक्षण तथा उपलब्धि ४७३, औपशमिक भाव का फल ४७३, औपशमिक भाव का कार्य ४७३, औपशमिक भाव से मोक्षाभिमुख गति-प्रगति और पराक्रम ४७४, औपशमिक भाव के भेद-प्रभेद और उसका महत्त्व ४७४, औपशमिक भाव द्वारा मोक्ष के शिखर के निकट पहुँचने का पराक्रम ४७५, क्षायिक भाव : स्वरूप, कार्य और फल ४७६, औपशमिक और क्षायिक भाव में अन्तर ४७७, क्षायिक भाव की नौ विशिष्ट उपलब्धियाँ ४७८, क्षायिक भाव भी उपचार से कर्मजनित हैं ४७९, केवलज्ञानी का औदयिक भाव बन्ध का कारण नहीं है ४७९, अहंत भगवान की क्रियाएँ औदयिक होते हुए भी क्षायिक हैं ४८०, क्षायोपशमिक भाव : स्वरूप, कार्य और फल ४८०, क्षायोपशमिक भाव का रहस्यार्थ और कार्य ४८१, चार घातिकर्मों के क्षायोपशम से निष्पन्न क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद ४८२, ये अठारह भेद क्षायोपशमिक क्यों? ४८३, क्षायोपशमिक भाव के तीन कार्य : कौन-कौन-से? ४८४, ये और ऐसे क्षायोपशमजनित भाव क्षायोपशमिक हैं ४८५, चार घातिकर्मों में से किस-किस कर्म में किन-किन भावों का प्रादुर्भाव? ४८६, औदयिक भाव : स्वरूप, कार्य और फल ४८६, सामान्य रूप से औदयिक भाव के अनन्त और मुख्य रूप से इक्कीस प्रकार ४८७, अज्ञानादि पर्याय : किन-किन कर्मों के उदय से? ४८८, इन सबको भी औदयिक भाव में समझने चाहिए ४८८, औदयिक भाव का कार्य और फल ४८८, मोहजनित भाव ही औदयिक भाव है, शेष औपचारिक ४८९, पारिणामिक भाव : स्वरूप, कार्य, प्रकार और फल ४८९, साधारण-असाधारण पारिणामिक भाव-निर्देश ४९०, आत्मा के शुद्ध और अशुद्ध पारिणामिक भाव ४९१, औदयिक आदि पाँच भावों के दो-दो भेद और प्रभेद ४९२, सान्निपातिक भाव : स्वरूप, प्रकार और कार्य ४९६, पाँच भावों के कुल तिरेपन भेद ४९६, सान्निपातिक भाव के विविध सयोगी छब्बीस भेद ४९७, ये मुख्य भाव कितने-कितने, किस-किस में प्राप्त होते हैं ? ४९८, गुणस्थानों के साथ भावों की योजना ४९९, प्रथम गुणस्थान में दर्शनमोह का उदय भी, आंशिक क्षयोपशम भी ५00, पाँच भावों में से प्रत्येक कर्म में प्राप्त भाव का निर्देश ५00, पाँच भावों की प्ररूपणा क्यों और प्रेरणा क्या? ५०१, कर्ममुक्ति की ओर बढ़ने के लिए औपशमिकादि तीन भावों को अपनाओ ५०२, गुणस्थानों में औपशमिक आदि भावों की प्ररूपणा का यंत्र ५०३। (१९) ऊर्ध्वारोहण के दो मार्ग : उपशमन और क्षपण पृष्ठ ५०४ से ५२७ तक ____ दो प्रकार के पर्वतारोही के तुल्य : दो प्रकार के श्रेणी-आरोहक ५०४, मोक्षशिखर पर पहुँचने के लिए दो प्रकार का श्रेणी-आरोहण. ५०५, उपशमश्रेणी आरोहण का अभ्यास-क्रम ५०५, उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी के आरोहकों में अन्तर ५०६, दोनों श्रेणियों का दो प्रकार का कार्य और कदम ५०६, उपशमश्रेणी द्वारा ऊर्ध्वारोहण का मार्ग ५०६, उपशमश्रेणी का स्वरूप, प्रारम्भ और पतन-क्रम ५०६, उपशमश्रेणी का प्रस्थान : चौथे गुणस्थान से या सप्तम गुणस्थान से? ५०७, उपशमश्रेणी-प्रस्थापक द्वारा अनन्तानुबन्धी कषायोपशम किस क्रम से? ५०७, यथाप्रवृत्तकरण का कार्य ५०७, अपूर्वकरण का कार्य ५०८, चारित्रमोह के सर्वांगीण उपशम का क्रम ५१०, अन्तरकरण के नियम ५१०, क्रमशः नोकषायों और कषायों के उपशमन की क्रम-प्ररूपणा ५१२, कुछ शंकाएँ : कुछ समाधान ५१४, उपशमश्रेणी में मोहनीय कर्म की सर्वप्रकृतियों का उपशम : लाभ-हानि ५१५, उपशमश्रेणी के पश्चात् शान्त कषाय, पुनः उत्तेजित और पतन ५१६, क्षपकश्रेणी द्वारा ऊर्ध्वारोहण का मार्ग ५१८, उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी के कार्य और फल में अन्तर ५१८, क्षपकश्रेणी में क्षय होने वाली तिरेसठ प्रकृतियाँ ५१९, क्षपकश्रेणी में प्रकृतियों के क्षय का क्रम ५१९. सयोगीकेवली अवस्था की स्थिति तथा केवली भगवान का कार्य ५२४, योगनिरोध का क्रम ५२५, सयोगी से अयोगीकेवली होने के लिए अवशिष्ट प्रकृतियों के क्षय का पुरुषार्थ ५२५, उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी दोनों की मोक्ष की ओर दौड़ ५२७।। (२०) ऋणानुबन्ध : स्वरूप, कारण और निवारण पृष्ठ ५२८ से ५५६ तक दीर्घमार्ग-यात्री के समान दीर्घसंसार-यात्री को भी कटु-मधुर अनुभव ५२८, ऋणानुबन्ध या बन्ध-परम्परा का कारण और स्वरूप ५२९, ऋणानुबन्ध नाम की सार्थकता ५२९, ऋणानुबन्ध कैसे-कैसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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