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________________ * ३३६ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * ३९५, गुणस्थान : मोहकर्म की न्यूनाधिकताएँ गुणों की शुद्धि - अशुद्धि की तरतमता के मापक ३९६, गुणस्थानों में जीवस्थान आदि प्ररूपणीय विषय ३९६, (१) गुणस्थानों में जीवस्थान की प्ररूपणा ३९७, (२) गुणस्थानों में योगों की प्ररूपणा ३९७, (३) गुणस्थानों में उपयोगों की प्ररूपणा ३९९, (४) गुणस्थानों में लेश्या की प्ररूपणा ४००, (५) गुणस्थानों में बन्धहेतु प्ररूपणा ४०१, जितने अधिक बन्धहेतु, उतने अधिक कर्मबन्ध ४०१, बन्धहेतुओं के रहने तक उन-उन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता रहता है ४०२, कर्मों के मूल - बन्धहेतु और उनका स्वरूप ४०२, मूल- बन्धहेतु : उनके भेद और स्वरूप ४०३, गुणस्थानों में मूल-बन्धहेतु की प्ररूपणा ४०४, एक सौ बीस प्रकृतियों के यथासम्भव मूल- बन्धहेतु ४०४, गुणस्थानों में उत्तर- बन्धहेतुओं की सामान्य और विशेष प्ररूपणा ४०७, गुणस्थानों में उत्तर- बन्धहेतुओं की संख्या ४०७, (६) गुणस्थानों में मूल कर्मप्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणा ४१०, ( ७, ८) गुणस्थानों में सत्ता और उदय की प्ररूपणा ४११, (९) गुणस्थानों में उदीरणा की प्ररूपणा ४११, (१०) गुणस्थानों में अल्प - बहुत्व की प्ररूपणा ४१३, अल्प-बहुत्व : उत्कृष्ट संख्या पर आधारित ४१४, (११) गुणस्थानों में पाँच भावों की प्ररूपणा ४१५, चौदह गुणस्थानों में पाँच भावों के मूल भेदों की प्ररूपणा ४१६. चौदह गुणस्थानों में पाँच भावों के उत्तरभेदों की अपेक्षा से प्ररूपणा ४१७, एक जीवाश्रित भावों के उत्तरभेदों की प्ररूपणा ४१८-४१९ । गुणास्थानों में जीवस्थान आदि की प्ररूपणा का यंत्र ४२० । (१७) गुणस्थानों में बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा प्ररूपणा पृष्ठ ४२१ से ४६३ तक आत्मा पर लगे बन्धादि के संयोग-वियोग का गुणस्थानों द्वारा नापजोख ४२१, ( १ ) बन्धाधिकार ४२२, कर्मबन्धयोग्य एक सौ बीस प्रकृतियाँ: क्यों और कैसे ? ४२२, बन्धयोग्य एक सौ बीस, उत्तर- कर्मप्रकृतियाँ : एक दृष्टि में ४२२, गोम्मटसार के अनुसार भेदविवक्षा से एक सौ छियालीस भेद ४२३, एक सौ बीस प्रकृतियाँ ही बन्धयोग्य क्यों, शेष क्यों नहीं ? ४२३, बन्ध की उत्तरोत्तर न्यूनता और बन्धशून्यता ही जीवन का लक्ष्य ४३२, (२) सत्ताधिकार ४३२, चौदह गुणस्थानों (कर्म) सत्ता की प्ररूपण ४३२, बन्ध और सत्ता में अन्तर ४३२, सत्ता का स्वरूप और दो रूप ४३३, सत्ता का परिष्कृत स्वरूप और प्रकार ४३४, सत्ता के दो प्रकार : सद्भावसत्ता, सम्भवसत्ता ४३४, दोनों का उदाहरणपूर्वक स्पष्टीकरण ४३४, सत्ता के अन्य प्रकार ४३४ सत्तायोग्य एक सौ अड़तालीस कर्मप्रकृतियाँ : कौन-कौन-सी ? ४३५, दूसरे-तीसरे गुणस्थान के सिवाय पहले से ग्यारहवें गुणस्थान में सत्ता की प्ररूपणा ४३६, दूसरे-तीसरे गुणस्थान में सत्ता की प्ररूपणा ४३७, ग्यारहवें गुणस्थान तक एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों की सत्ता : क्यों और कैसे ? ४३७, सामान्य की अपेक्षा प्रथम से ग्यारहवें तथा दूसरे-तीसरे गुणस्थान में सत्ता-प्ररूपणा ४३७, चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक में सत्ता - प्ररूपणा ४३८, उपशमश्रेणी वाले चार गुणस्थानों में सत्ता की प्ररूपणा ४३८, क्षपक श्रेणी वाले चार गुणस्थानों में सत्ता की प्ररूपणा ४३८, नौवें गुणस्थान के दूसरे से नौवें भाग तक में सत्ता की प्ररूपणा ४४०, (३, ४) उदयाधिकार और उदीरणाधिकार ४४३, उदय और उदीरणा के स्वरूप में अन्तर ४४३, जिस कर्म का बन्ध, उसी का फलभोग : अन्य का नहीं ४४३, सामान्यतया उदययोग्य प्रकृतियाँ : कितनी और कैसे ? ४४४, प्रथम गुणस्थान में उदययोग्य एक सौ सत्रह प्रकृतियाँ : क्यों और कैसे ? ४४४, द्वितीय गुणस्थान में उदयोग्य एक सौ ग्यारह प्रकृतियाँ : क्यों और कैसे ? ४४५, चौदहवें गुणस्थान में तीस प्रकृतियों का उदय-विच्छेद और बारह प्रकृतियों का उदय ४५३, उदय से उदीरणा में विशेषता ४५४, छठे गुणस्थान तक उदय और उदीरणा में समानता ४५४, उदय की अपेक्षा उदीरणा में विशेषता: सातवें से चौदहवें गुणस्थान तक ४५४ (१) बन्धयंत्र ४५६, (२) सत्तायंत्र ४५८, (३) उदययंत्र ४६०, (४ ) उदीरणायंत्र ४६२ ४६३ । (१८) औपशमिकादि पाँच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान पृष्ठ ४६४ से ५०३ तक जीव के औपशमिकादि पाँच भाव ४६४, समुद्र और उसकी लहरों की तरह जीव और उसके पंच भाव ४६४, जीव के पाँच भाव ४६४, आत्मा के स्वतत्त्वरूप पंचविध भाव जीवद्रव्य में, जीवद्रव्य से ही उठते हैं ४६५, पाँचों भाव जीव के स्वतत्त्व : असाधारण गुण : तात्पर्यार्थ ४६५, जीवद्रव्य : औपशमिकादि पाँचों भावों से युक्त ४६६, पाँच भाव आत्मा की पंचविध पर्यायें या अवस्थाएँ ४६६, जीवों में पाँचों भाव, पुद्गलादि द्रव्यों में नहीं ४६७, पाँचों में से किस जीव में कितने भाव ? ४६७, आत्मा के स्वरूप के विषय में अन्य दर्शनों और जैनदर्शन का मन्तव्य ४६७, पाँच भावों की उत्पत्ति में साधन ४६८, पाँच भावों को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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