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* विषय-सूची : चतुर्थ भाग * ३२७ *
का कारण है ४२९, दम्भी और धूर्त भी पापकर्मबन्ध के कारण ४३0, चोर किस पापकर्म के बन्ध के कारण बँधता है? ४३०, पापात्मा बँधता है-पापकर्मबन्ध के कारण ४३०, कसाई और हत्यारा भी पापकर्मों के कारण बँधता है ४३०, अनार्यदेश में जन्म लेने के कारण ४३०, पुत्रहीनता भी पापकर्मबन्ध के कारण ४३१. कृपणता, कुपुत्र और कुमार्या की प्राप्ति कैसे? ४३१, सहोदर भाइयों में वैमनस्य का कारण ४३१, अल्पायु होने के ये कारण हैं ४३१, ये दुःसाध्य रोग भी पूर्वकृत पापकर्म के फल ४३२, अष्टादश पापस्थानक : अठारह प्रकार के पापकर्मों के बन्ध के कारण ४३२, पुण्यकर्म की प्रकृतियाँ और उनका बन्ध ४३४, श्रवणेन्द्रिय-नेत्रेन्द्रिय-रसनेन्द्रिय की प्रबलता का लाभ पुण्यबन्ध से ४३६. पुण्यबन्ध के कारण सुख-शान्ति-सम्पन्न, ऋद्धिमान् और ऋद्धिमान् धनाढ्य ४३८, शुभ-अशुभ बन्ध एवं विपाक : अध्यवसाय पर निर्भर ४३९, पुण्यबन्ध के नौ प्रमुख कारणात्मक प्रकार ४३९, पुण्यकर्म की बन्ध योग्य बयालीस प्रकृतियाँ ४४0, रत्नत्रय : पुण्यबन्ध का कारण नहीं, राग कारण है ४४१, पुण्यबन्ध विषयेच्छा-मूलक न हो ४४१-४४२। (२३) रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम पृष्ठ ४४३ से ४७२ तक
रस की संसार में सर्वव्यापकता ४४३, जीवन के समस्त क्षेत्रों में रस का महत्त्व ४४३, सभी क्षेत्रों में रसों को सरसता-निरसता-प्रदाता कार्मिक रसाणु ४४४, कार्मिक रसाणु (बद्धकर्म रस) ही समस्त संसारी जीवों का भाग्य-विधाता ४४४, समग्र विश्व का संचालक सत्ताधीश : कर्मरसाणु ४४४, समग्र विश्व की गतिविधि कर्म रसाणुओं पर निर्भर ४४५, अनुभाव (रस) बन्ध ही आत्मा के साथ कर्म का खास बन्ध ४४५, केवल प्रकृति-प्रदेशबन्ध से काम नहीं चलता ४४६, मुख्य फलदान-शक्ति का नियामक अनुभागबन्ध है, प्रकृतिबन्ध नहीं ४४६, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का कार्य और दोनों में अन्तर ४४७, रस, अनुभाग, अनुभाव, अनुभव आदि एकार्थक हैं ४४८, मूल-प्रकृति, अनुभागबन्ध और उत्तर-प्रकृति अनुभागबन्ध ४४८, अनुभागबन्ध = रसबन्ध का कार्य ४४८, स्वाभाविक रस और कषाय-परिणत रस में अन्तर ४४९, रसबन्ध का लक्षण ४४९, अनुभागबन्ध का स्वरूप ४४९, एक ही प्रकार के कर्म-परमाण भिन्न-भिन्न रस वाले कैसे हो जाते हैं ? ४५0. अनुभागबन्धों के दो प्रकार : तीव्र और मन्द ४५०, तीव्र
और मन्द अनुभागबन्ध के कारण ४५०, रसबन्ध : रसाणुओं का, अर्थात् फलदान-शक्ति-अंशों का बन्ध ४५१, कर्मपुद्गलों में सर्वजीवों से अनन्तगुणे भावाणु या रसाणु ४५२, अशुभ प्रकृतियों का अनुभाग निम्बरस और शुभ प्रकृतियों का इक्षुरस के समान ४५२, द्विविध प्रकृतियों के तीव्र और मन्द रस की चार-चार अवस्थाएँ ४५२, अशुभ और शुभ प्रकृतियों के मन्द रस की चार-चार अवस्थाएँ ४५३, रस के तीव्र-मन्द बन्ध का कारण : कषाय की तीव्रता-मन्दता ४५३, शुभाशुभ कर्मप्रकृतियों की तीव्रादि तथा मन्दादि अवस्थाएँ ४५३. रसबन्ध के चारों प्रकारों के चार स्थान : दृष्टान्त द्वारा सिद्ध ४५४. रसबन्ध : इक्षरस या निम्बरस के दृष्टान्त से एक ठाणिया से लेकर चार ठाणिया तक ४५४, रसबन्ध में कषाययुक्त लेश्या के कारण असंख्य स्थान ४५५, अध्यवसाय के कारण हुए रसबन्ध के फलस्वरूप स्थिति और रस का निश्चय ४५६. तीव्र और मन्द अनभागबन्ध के चार-चार भेदों के कारणों का निर्देश ४५६. किस प्रकति में, कितने प्रकार का रसबन्ध होता है और क्यों? ४५७, शुभ प्रकृतियों में एक स्थानिक रसबन्ध क्यों नहीं ? ४५८, कषायों की तीव्रता-मन्दता से अशुभ-शुभ प्रकृतियों के अनुभागबन्ध ४५९, विशुद्ध-संक्लिष्ट परिणामों से शुभाशुभ प्रकृतियों के अनुभागबन्ध में अन्तर ४५९, अशुभ और शुभ प्रकृतियों का कटु-मधुर रस कैसे-कैसे चार प्रकार का होता है ? ४६०, एकस्थानिक से चतुःस्थानिक रस तक की प्रक्रिया ४६०, अशुभ-शुभ प्रकृतियों में कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार उत्तरोत्तर अनन्तगुणे रसस्पर्द्धक ४६१, पंचसंग्रह में अशुभ-शुभ प्रकृतियों के रस की उपमाएँ ४६१, गोम्मटसार में घाति-अघाति कर्मों के अनुसार विविध उपमाएँ ४६२. (१) प्रथम द्वार : रसबन्ध के चार प्रकार तारतम्यापेक्षा से ४६२, (२) संज्ञा द्वार : रसबन्ध के लिए प्रयुक्त दो संज्ञाएँ ४६३, घातिसंज्ञा-प्ररूपणा द्वारा रसबन्ध के चार प्रकारों का निरूपण ४६३, स्थान-संज्ञा-प्ररूपणा द्वारा चतुःस्थानों का अनुभागबन्ध-निरूपण ४६४, (३) प्रत्यय द्वार : बन्ध हेतुओं की दृष्टि से अनुभागबन्ध-विचार ४६४, (४) विपाक द्वार : कर्म की फलदानाभिमुखता की दृष्टि से बन्ध-विचार ४६५, (५) प्रशस्त-अप्रशस्त द्वार : प्रशस्त-अप्रशस्त रसबन्ध का कारण ४६५,
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