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* ३२६ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
कार्य तथा बन्धकारण ३८६, उच्चगोत्र कर्म का फलभोग : आठ प्रकार से ३८९. नीचगोत्र कर्म का फलभोग : आठ प्रकार से ३९०, उच्चगोत्र कर्म का फलभोग : स्वतः भी, परतः भी ३९१, नीचगोत्र कर्म का अनुभाव भी स्व-परतः दोनों प्रकार से ३७१, अन्तरायकर्म की उत्तर-प्रकृतियाँ : स्वरूप, कार्य और बन्धकारण ३९२, अन्तराय की उपमा : राजभण्डारी से ३९३, अन्तरायकर्म का द्विविध प्रभाव ३९३, आत्मा की पंचविध शक्तियों में अवरोधक : अन्तरायकर्म ३९३, दान के प्रकार और दानान्तरायकर्म का स्वरूप ३९३, लाभान्तराय आदि कर्म का स्वरूप ३९४, आध्यात्मिक दृष्टि से वीर्यान्तराय कर्म के तीन भेद ३९५, अन्तराय कर्मबन्ध के कारण ३९५, अन्तरायकर्म का फलभोग : कैसे जानें, पहचानें ? ३९७, उपसंहार ३९९। (२१) घाति और अघातिकर्म-प्रकृतियों का बन्ध
पृष्ठ ४00 से ४१६ तक द्रव्य-विकार की निमित्तभूता प्रकृति : अघातिकर्म ४00, घातिकर्म प्रकृति : भाव विकार की निमित्तभूता ४00, आठ कर्मों की द्विविध प्रकृतियाँ ४0१, आत्मा के मुख्य चार निजी गुणों की घातक : चार घातिकर्म-प्रकृतियाँ ४०१, आत्मा के चार स्व-गुणों का ये चार घातिकर्म कैसे घात करते हैं ? ४०१, घातिकर्म आत्मा के ज्ञानादि गुणों का सर्वथा नाश नहीं कर सकता ४०२, घातिकर्म-सम्बन्धी विवेचनकर्मविज्ञान के तृतीय खण्ड में ४०३, घातिकर्मों का मुखिया : मोहनीय कर्म और उसकी प्रबलता ४०३, मोहनीय कर्म की प्रबल घातकता का उदाहरण ४०४, घातिकर्मों के समूल नष्ट हो जाने पर ही केवलज्ञान-दर्शन एवं जीवन्मुक्त वीतराग ४०६, चार घातिकर्मों की उत्तर-प्रकृतियाँ ४०६, सर्वघाति और देशघाति प्रकृतियाँ ४०७, सर्वघातिनी में सर्वघात शब्द का रहस्यार्थ ४०८, सर्वघातिनी प्रकृतियाँ कैसे सर्वघात करती हैं ? ४०८, वेदनीय कर्म : अघाति भी, घाति भी ४०९, अन्तराय कर्म : कथंचित् अघाति ४०९, देशघातिनी कर्मप्रकृतियाँ : स्वरूप और संख्या ४१०, मतिज्ञानावरणीयादि चार तथा केवलज्ञानावरणीय घाति हैं या अघाति ? ४११, सम्यमिथ्यात्व-मोहनीय एवं मिथ्यात्व-मोहनीय सर्वघाति हैं या देशघाति? ४११ सम्यक्त्व-मोहनीय प्रकृति देशघाति क्यों? ४११, प्रत्याख्यानावरणीय कपायचतुष्क सर्वघाती कैसे? ४१२, अघातिकर्म का लक्षण, स्वरूप, कार्य और प्रभाव ४१२, अघातिकर्म के प्रकार, नाम
और प्रभाव ४१३, अघातिकर्म की मूल-प्रकृतियाँ और उनका कार्य ४१४, अघातिकर्म-प्रकृतियों के बन्धयोग्य भेद ४१४, घाति-अघाति कर्मों की मूल-उत्तर-प्रकृतियों के बन्ध के हेतु ४१४, जीवविपाकी कर्म-प्रकृतियाँ घातिया क्यों नहीं? ४१५, सर्वघाति और देशघाति कर्म-प्रकृतियों की निकृष्ट-उत्कृष्ट शक्ति लतादितुल्य है ४१५, घाति-अघाति कर्म-प्रकृतियों में शुभाशुभ कर्म-प्रकृतियों का वर्गीकरण ४१५, चारों घाति और चारों अघातिकर्मों का समूल उन्मूलन होने पर ४१६। (२२) पाप और पुण्य कर्म-प्रकृतियों का बन्ध
पृष्ठ ४१७ से ४४२ तक ___पापकर्म की प्रकृतियाँ और उनका बन्ध ४१७, हिंसादि पापकर्मों का बन्ध सर्वमान्य ४१७, चार कषायों से पापकर्म का बन्ध अवश्यम्भावी ४१७, विभिन्न प्रकार के अप्रशस्त राग और द्वेष से पापकर्म का बन्ध ४१८, अन्य पापस्थानों से पापकर्म का बन्ध ४१९, पापकर्मबन्ध : दुःखफलदायक एवं प्रत्यक्षवत् ४१९, पापकर्म छिपाने से छिप नहीं सकते ४२०, पापकर्मबन्ध के कारण और कट्परिणाम ४२०, पापकर्मबन्ध का अस्तित्व अनुमान से भी सिद्ध है ४२१, पापकर्म के दो प्रकार : प्रच्छन्न और प्रकट ४२२, पापकर्मबन्ध का फल : किसी न किसी दुःख के रूप में ४२२, पापकर्मबन्ध के मुख्य कारण : हिंसा, ममत्वयुक्त परिग्रह आदि ४२३, पापकर्म के अनेक पर्यायवाची शब्द ४२४, विषयलोलुपता के कारण वैर परम्परा, ताना दुःखों से पीड़ित, आर्त ४२४, अंग विकलता-दुःखदैत्यादि का कारण हिंसाजनित पापकर्मवन्ध ४२५, निर्दोष त्रस प्राणियों के वध से बद्ध पाप का फल : विविध अंग विकलता ४२५, दीन, दुःखी एवं अपमानित होने का कारण : पूर्वबद्ध पापकर्म ४२५, नेत्रेन्द्रियहीनता का कारण : पापकर्मबन्ध ४२६. श्रोत्रेन्द्रियहीनता का कारण : पापकर्मबन्ध ४२६, जिह्वेन्द्रियहीनता का कारण : पापकर्मों का बन्ध ४२७, इन पापकर्मों के बन्ध के कारण मानव अपमानित होता है ४२९, निर्वल पापबन्ध के कारण से होता है? ४२९, कायर और डरपोक किन पापकर्मों के कारण होता है? ४३९, पराधीन होना भी पापकर्म के बन्ध
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