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* ३१८ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
का स्पष्टीकरण ३५, कर्मबन्ध : आत्मा के स्वभाव और स्व-गुणों का अवरोधक ३५, कर्मबन्धों के फल को जानकर उनसे बचो ३६। (४) कर्मबन्ध : क्यों, कब और कैसे ?
__ पृष्ठ ३७ से ५७ तक समस्त आत्माएँ अपने मूल स्वभाव में क्यों नहीं रहती? ३७, आत्मा शुद्ध से अशुद्ध दशा में कैसे पहुँच जाती है ? ३७, दूसरा कोई द्रव्य आत्मा को सुख या दुःख नहीं देता ३८, क्या बिजली की तरह कर्म भी पक्षपाती है? ३८, कर्म कब चिपटता है, कब नहीं ३९, आत्मा में बिगाड़ आता है, विजातीय वस्तु के संयोग से ३९, विजातीय वस्तु के साथ मिल जाने से मूल वस्तु में बिगाड़ ३९, चुम्बक द्वारा सुई को आकर्षित करने के समान जीव और कर्म का आकर्षण ४0, जीव और पुद्गल दोनों के सम्बन्ध से तीसरी वस्तु का निर्माण ४१, रागादि बन्ध हेतु परिणाम : जीव-कर्म-संयोगजनित है ४२, शुद्ध निश्चयनय से दोनों का संयोग ही नहीं बनता ४२, अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्म के साथ बन्धन कैसे? ४२, मूर्त और अमूर्त का सम्बन्ध : किस माध्यम से? ४३, वैभाविक शक्ति से रूपी पदार्थों को जानने-देखने से आत्मा का मूर्त कर्मों के साथ बन्ध ४३, आत्मा अमूर्त होते हुए भी मूर्त क्यों? : एक युक्तिसंगत समाधान ४४, अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्मपुद्गलों का सम्बन्ध : ऐसे भी ४५, कर्म मूर्त है, इसमें क्या प्रमाण? ४५, पुण्य-पाप-बन्धन में पड़ा जीव अमूर्तिक भी मूर्तिक हो जाता है ४६, जीव संसारी अमूर्तिक न होकर मूर्तिक ही है ४६, दोनों अनुकूल द्रब्यों का ही बन्ध होता है ४७, बन्ध-प्राप्त दोनों द्रव्यों का परस्पर सापेक्ष होकर ही बन्ध होता है ४७, श्लेषरूप बन्ध केवल क्षेत्रात्मक ही नहीं, द्रव्यादि चतुष्टयात्मक होता है ४७, बन्धावस्था में जीव कर्मनिबद्ध, कर्म जीव से बद्ध हो जाता है ४८, जीव कर्मों को पराधीन करता है, वैसे कर्म भी जीव को करते हैं ४८, बन्ध के ये उभयविध रूप ४८, कर्म आत्मा से ही क्यों चिपकते हैं, वस्त्रादि से क्यों नहीं? ४८, चिपटना ही कर्म का स्वभाव नहीं है ४९, कर्ममुक्त सिद्ध आत्मा के कम नहीं चिपटता ४९, संसारस्थ जीव और कर्म का बन्ध अनादि है, प्रवाहरूप से ४९, ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य की दृष्टि में : संसार और कर्म का अनादि सम्बन्ध ५०, संसारस्थ आत्मा अनादिकाल से कर्मबद्ध होता रहता है : क्यों और कैसे? ५०, संस्कार के कारण ही अनादिकाल से कर्म बाँधते हैं ५१, क्रिया की प्रतिक्रिया का चक्र ही अनादिकालीन कर्मबन्ध का द्योतक ५२, अनादिकालीन कर्मबन्ध की प्रक्रिया ५३, एक जीव एक साथ सात-आठ कर्मों को कैसे बाँध लेता है? ५३, आत्मा द्वारा गृहीत एवं आकर्षित कर्म ही बद्धकर्म कहलाते हैं. शेष नहीं ५४, आत्मा ही अपनी क्रिया-प्रवृत्ति द्वारा कर्मों को खींचती-चिपकाती है ५४. ज्ञानस्वरूप होते हा भी आत्मा कर्मों से क्यों बँधता है ? ५५, क्रिया-प्रतिक्रिया-जनक संस्कार के कारण कर्मबन्ध होता रहता है ५५, नमक के त्याग की शर्त को तोड़ने का नतीजा ५६, जानबूझकर कर्म बाँधने के पीछे पूर्वोक्त प्रवृत्ति-संस्कार ही कारण है ५६, जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति से प्रतिक्षण जुड़े हुए कर्मबन्ध से अनभिज्ञ ५७, मानव कर्मबन्ध का जाल स्वयं बुनता है, स्वयं फँसता है ५७। (५) कर्मबन्ध का मूल स्रोत : अध्यवसाय
पृष्ठ ५८ से ७८ तक ___ गंगा नदी की विविध धाराओं के स्रोत हिमालयवत् कर्मबन्ध-धाराओं का स्रोत : अध्यवसाय ५८, अध्यवसाय : विभिन्न अर्थों में ५९, भाव, अध्यवसाय या परिणाम से ही बन्ध और मोक्ष ६०, गंगा की शुभ, अशुभ, शुद्ध धारावत् कर्मबन्ध-धाराएँ भी त्रिविध ६०, असंख्यात-अध्यवसाय-धाराएँ-असंख्यात कर्मबन्ध-प्रकार ६१, शुभाशुभ कर्मों का बन्ध : शुभाशभ अध्यवसायों पर निर्भर ६१. अशभ से शभ और शुभ से शुद्ध अध्यवसाय का परिणाम ६१, कर्मबन्ध वस्तु से नहीं, अध्यवसाय से ही ६३, भाव से ही कर्मबन्ध. द्रव्य से नहीं : द्रव्य-भाव-चतुर्भगी द्वारा स्पष्टीकरण ६३, सत्य-असत्य सम्बन्धित चतुभंगी भी इसी प्रकार है ६५. अस्तेय. चौर्य-अदत्तादान-सम्बन्धी चतभंगी . अब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य से सम्बन्धित चतर्भगो ६७, परिग्रह-अपरिग्रह-सम्बन्धित चतुर्भंगी ६८, अध्यवसाय बदलते रहते हैं, निमित्त के अवलम्बन से ६९, अमनस्क जीवों के अध्यवसाय कैसे? ६९, निगोद के जीवों में भी अध्यवसाय और कर्मबन्ध ७0, तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों में शुभ अध्यवसाय भी सम्भव ७0. अध्यवसायों पर चौकसी रखने से अशभ से बच सकते हैं ७१, बाहुबलि मुनि के अभिमान का अध्यवसाय केवलज्ञान में बाधक था ७२, अध्यवसाय-सम्बन्धित तीन निष्कर्ष ७२, शुभ या शुद्ध भावों से शून्य क्रिया सुफलवती नहीं होती ७४, साधु-जीवन में अशुभ और
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