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________________ * विषय-सूची : तृतीय भाग * ३१३ * का शंकराचार्यकृत तात्पर्यार्थ ८६४, भगवद्गीतानुसार त्रिविधगुणयुक्त आहार एवं उसकी व्याख्या ८६४, मनोनिग्रह के लिए मन के स्वभाव को बदलना आवश्यक ८६५, भागवत में तीनों गुणों की वृद्धि में कारणभूत दस बातों की समीक्षा और संक्षिप्त व्याख्या ८६५, अपूर्ण मनःशुद्धि के लिए भी दृढ़ इच्छा एवं श्रद्धापूर्वक दीर्घकाल तक अभ्यास अनिवार्य ८६६, मनःसंवर-साधना में कतिपय सहायक कारण ८६७, मनोनिग्रह के ज्ञान, वैराग्य एवं अभ्यास में सरलतम सहायक : सत्संग ८६७, आन्तरिक सत्संग मनःसंवर में तत्काल सहायक ८६८, श्रद्धेय-त्रिपुटी के प्रति श्रद्धा-भक्ति : मनःसंवर की साधना में सहायक ८६८, मन का स्वामी बनने हेतु योगांगों का अभ्यास आवश्यक ८६९, मनःसंवर-साधना में सहायक चार भावनाएँ ८७0, मन की अशुभ से रक्षा करने हेतु विवेक का अभ्यास जरूरी ८७0, मनोनिग्रह हेतु मन को शुद्ध एवं उचित प्रवृत्ति में केन्द्रित करना ८७१, मन को अपने से पृथक् समझने का अभ्यास करना मनःसंवर में सहायक ८७१, मनोविजय के लिए किये गये इस अभ्यास से लाभ ८७२, प्राणायाम का अभ्यास : मनःस्थिरता में सहायक ८७२, मन को बाह्य विषयों से हटाकर लक्ष्य में स्थिर करने हेतु प्रत्याहार का अभ्यास ८७२, अशुभ में जाते हुए मन को प्रतिपक्षी के शुभ भावों में मोड़ना भी मनोनिग्रह का उपाय ८७३, मनोनिग्रह के लिए मन में दुर्भावना के बदले सद्भावना का अभ्यास सहायक ८७४, मनःसंवर का साधक प्रतिक्षण मन की वृत्ति-प्रवृत्तियों से सतर्क रहे ८७६, मन को परमात्मा या शुद्ध आत्मा की ओर मोड़ने का अभ्यास : मनःसंवर-साधक ८७६, आपातकाल में मनोविजय के व्यावहारिक उपाय ८७७, प्रलोभनकारी आम्रवयुक्त विचारों का सामना कैसे करे ? ८७८, सतत नाम-जप का अभ्यास भी मनःसंवर में सहायक ८७९. नाम-जप से मन की शुद्धता और निरुद्धता ८८०, प्रभु-प्रार्थना भी मन की शुद्धता और निरुद्धता में सहायक ८८१, सत्कार्यों में तन्मयता का अभ्यास : मनःसंवर में सहायक ८८२, विचारशून्य अवस्था की प्राप्ति के लिए ८८६, मनोनिग्रह का प्रभावशाली साधन : शुभ ध्यान का अभ्यास ८८७, मनःसंवर में प्रगति के लिए सतत अभ्यास एवं निराशा त्याग आवश्यक ८८७, वैराग्य के अभ्यास के लिए तथागत बुद्ध का पंचसूत्री उपदेश ८९२-८९३। (१५) प्राण-संवर का स्वरूप और उसकी साधना पृष्ठ ८९४ से ९३३ तक : कल-कारखाने के संचालन की तरह शरीर-संचालन के लिए भी ऊर्जा-शक्ति अनिवार्य ८९४, प्राणशक्ति ही प्राणी के जीवन में कार्यक्षमता और सक्रियता की उत्पादक ८९५, प्राण क्या करता है ? उसके बिना क्या नहीं होता? ८९५, प्राणशक्ति (वीर्य) से सम्पन्न जीतता है, प्राणशक्तिहीन हारता है ८९६, वास्तविक विजेता कौन? युद्धवीर या आत्म-विकारवीर ? ८९६. प्राणशक्ति से विहीन व्यक्ति का जीवन ८९७, प्राणशक्तिहीन एवं प्राणशक्ति-सम्पन्न का अन्तर ८९८. प्राणशक्ति विशिष्ट व्यक्ति की पहचान ८९८. प्राणशक्ति की सर्वाधिक उपयोगिता ८९९, शरीरयंत्र की संचार प्रणाली का मूलाधार : ऊर्जा-शक्ति ८९९, प्राणी के जीवन का मूलाधारं : प्राणशक्ति ८९९, सामान्य प्राण एक : विविध क्रियाशीलता के कारण अनेक ९०१, प्राण के अधिकाधिक प्रकट होने का प्रमुख केन्द्र : हृदय ९०२, शरीर में प्राण के प्रकट होने का द्वितीय केन्द्र : अपान १०३, प्राण के प्रकट होने का तृतीय केन्द्र : समान प्राण ९०३, प्राण का चतुर्थ केन्द्र : उदान प्राण ९०३ प्राण का समग्र शरीरव्यापी केन्द्र : व्यान-प्राण ९०४, पाँच उपप्राणों का कार्यकलाप ९०४, पाँच प्राणों और उपप्राणों का सन्तुलन बिगड़ने का परिणाम ९०५, सामान्य प्राण-तत्त्व के संवर की साधना में सावधानी ९०५, मस्तिष्क : सशक्त प्राण-ऊर्जा केन्द्र ९०५, प्राणों का मूल स्रोत : नाभि से नीचे तैजस् शरीर ९०७, शरीर में पर्याप्त प्राण-ऊर्जा के छह केन्द्र ९०७, दस प्रकार के विशिष्ट प्राण ९०८. दशविध प्राण : शरीर के विभिन्न भागों को शक्ति देने में सहायक ९०८. संसारी प्राणियों में दस प्राणों में से किसमें कितने प्राण? ९०९, प्राण जीवन में अनिवार्य होते हुए भी प्राण-निरोध या प्राण-संवर क्यों? ९०९, प्राणशक्ति का क्षय, अपव्यय एवं अत्युपयोग रोकने हेतु प्राण-संवर आवश्यक ९१०. श्रवणेन्द्रिय की क्षमता : द्रव्य-श्रोत्रेन्द्रिय-निरोध से ९११, कर्णेन्द्रिय की रचना से कानों की प्राण-ऊर्जा-ग्रहण-शक्ति ९१२. श्रवणेन्द्रिय-क्षमता में वृद्धि कैसे-कैसे सम्भव ? ९१३. स्थूल (द्रव्य) श्रोत्रेन्द्रिय का विकास भी बाह्य श्रवण-संवर से साध्य ९१३, कर्ण-पिशाचिनी विद्या-सिद्धि से दूरस्थ श्रवण-क्षमता ९१४, नादयोग की साधना से श्रवण-क्षमता में अपूर्व वृद्धि ९१४. तीर्थंकरों तथा उच्च देवलोक के देवों में बिना बोले ही परस्पर मनोगत वाचा को समझने की क्षमता ९१५, ऐसी संवर-साधना कब और कैसे हो सकती है ? ९१६, श्रोत्रेन्द्रिय की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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