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________________ * विषय-सूची : द्वितीय भाग * २९७ * (२) कर्मों का फलदाता कौन ? | पृष्ठ २३२ से २६१ तक ___जीव को कर्मों का फल ईश्वर देता है : वैदिक आदि धर्मों का मन्तव्य २३२, सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि की बागडोर ईश्वर के हाथों में २३३, वैदिक मान्यता : गर्भ से लेकर मृत्यु-पर्यन्त सभी कार्य-कलाप ईश्वर-प्रेरित २३३, कर्म जीव के हाथ में : फल ईश्वराधीन २३३, ईश्वर द्वारा कर्मफल-प्रदान में चतुर्थ कारण २३४, ईश्वर ही सबके भाग्य का निर्माता, त्राता एवं विधाता है २३५, न्यायाधीश की तरह ईश्वर सबके कर्मों का न्याय करता है २३५, जैन-कर्मविज्ञान ईश्वर को फलदाता, भाग्यविधाता नहीं मानता २३५, ईश्वर को कर्मफल-प्रदाता मानने पर अनेक आपत्तियाँ और अनुपपत्तियाँ सम्भव २३६, अशरीरी ईश्वर शरीरधारियों को कैसे कर्मफल दे सकता है ? २३६, ईश्वर की सर्वज्ञता केवल जानने रूप होती है, करने रूप नहीं २३७, सर्वज्ञता वीतरागता के बिना सम्भव नहीं २३७, वीतराग कभी दण्ड देने, कर्मफल भुगवाने के चक्कर में नहीं पड़ते २३७, लीला करने वाला या इच्छानुरूप खेल करने वाला ईश्वर मोही होगा, वीतरागी नहीं २३७, शुद्ध तत्त्वरूप ईश्वर परस्पर विरोधी कार्य कैसे कर सकता है ? २३८, सारे संसार के कर्म और कर्मफल का हिसाब एवं व्यवस्था रखना ईश्वर के लिए सम्भव नहीं २३८, ईश्वर सीधा कर्मफल नहीं देता, उसकी प्रेरणा से दूसरे जीव देते हैं २३९, ईश्वर को भाग्यविधाता मानने पर दोषापत्ति २३९, ईश्वर ने ऐसा भाग्य क्यों बनाया? २४0, बुद्धि की दुष्टता ईश्वर-प्रदत्त होने से घातकों की दुर्बुद्धिरूप कर्मफलोत्पादक ईश्वर २४0, सांसारिक जीवों का भाग्यविधाता ईश्वर होने से पापप्रवृत्ति-प्रयोजक भी ईश्वर है २४१, पापी पापकर्म करने में ढीट होकर ईश्वर की दुहाई देता है २४१, जीवों का भाग्य निर्माण करते समय दुर्बुद्धि व घातक मानव क्यों पैदा किये? २४२, तथाकथित परमात्मा द्वारा जैसा भाग्य निर्माण, वैसा ही कार्य दुरात्मा लोग करते हैं २४३, ईश्वर को कर्मफलदाता एवं भाग्यविधाता मानने से दोषापत्ति २४४, परमात्मा को कर्मफलदाता मानोगे तो वह अन्यायी एवं अपराधी सिद्ध होगा २४४, परमात्मारूपी शासक अपराधों को रोकने का कार्य पहले से ही क्यों नहीं करता? २४४, अपराधी के भावों को जानता हुआ ईश्वर उसे क्यों नहीं रोकता? २४५, तथाकथित ईश्वर सुयोग्य शासक के समान प्रभावशाली भी नहीं है २४८, अव्यक्त रूप से दण्ड प्रदान करना भी कृतकृत्य ईश्वर का कार्य नहीं २४८, ईश्वर-प्रदत्त कर्मफल वर्तमान वैज्ञानिकों द्वारा विफल एवं प्रभावहीन २४९. ऐसा परमात्मा पूजनीय एवं सम्मान्य कैसे ? २४९, ईश्वर द्वारा कर्मफल सजा के रूप में नहीं, दूसरों के घातरूप में मिलता है २५०, ईश्वर को फलदाता मानने से ऐसी अनेक दोषापत्तियाँ खड़ी होती हैं २५०, कर्मफल निष्फल नहीं, अवश्य सफल होता है २५१, संसार में पापात्मा सुखी और धर्मात्मा दुःखी दिखाई देते हैं : इसका समाधान २५१, पापात्मा की सम्पन्नता, पुण्यात्मा की विपन्नता : पापानुवन्धी पुण्य तथा पुण्यानुबन्धी पाप के कारण २५२, वैदिकधर्म एवं जैनधर्म द्वारा मान्य परमात्मा में परमात्मस्वरूप सम्बन्धी मतभेद २५३, परमात्मा से सम्बन्धित तीन रूप २५३, कर्मविज्ञान क्षेत्र में ऐसे परमात्मा की क्या उपयोगिता है ? २५६, परमात्मा की स्तुति, भक्ति आदि से महान् लाभ २५६, ईश्वर और जीव में अन्तर कर्मों का है २५७, अशुद्ध आत्मा संसारी : शुद्ध आत्मा मुक्त परमात्मा २५७, प्रत्येक जीव कर्म करने, फल भोगने, कर्मनिरोध और कर्मक्षय करने में स्वतंत्र २५८, जड़कर्म अपना फल कैसे देते हैं ? : संक्षिप्त समाधान २५८, कर्म कर्ता चाहे या न चाहे, कर्म अपना फल अवश्य देता है २५८, जीव स्वयं कर्म करता है, स्वयं ही फल पाता है, कर्म ही फलदाता है २५९, ईश्वर कर्मफलदाता नहीं : एक दृष्टि में २६०-२६१। (३) कर्म अपना फल कैसे देते हैं ? पृष्ट २६२ मे २७९ तक · जड़कर्म अपना फल कैसे देता है ? २६२. कर्म ज्ञानशून्य अवश्य है, शक्तिशून्य नहीं २६२, आहार-ग्रहण करने के बाद की स्वतः प्रक्रिया की तरह कर्म-ग्रहण के पश्चात फलदान-प्रक्रिया २६३. दवा शरीर में जहाँ रोग है. वहाँ पहुँचकर काम करती है २६३, कर्मपुद्गल भी आकष्ट होकर आने के पश्चात् स्वतः कार्य करते हैं २६४, कर्मों की फलदान-शक्ति में तरतमता क्यों ? २६४, कर्मों की फलदान-शक्ति में तारतम्य क्यों? २६५, मद्य और दूध की तरह ज्ञानशून्य होने पर भी कर्म अपना प्रभाव दिखाता है २६५, ज्ञानशून्य मिर्च और चीनी कैसे मुँह जला देती है और मीठा कर देती है २६६, वैज्ञानिकों द्वारा आविष्कृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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