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* २९६ * कर्मविज्ञान: परिशिष्ट *
पंचम खण्ड : कर्मफल के विविध आयाम
निबन्ध १३
पृष्ठ १९७ से ५३८ तक
(१) कर्म का कर्त्ता कौन, फलभोक्ता कौन ?
पृष्ठ १९७ से २३१ तक
कर्म का कर्ता-भोक्ता कौन ? : एक प्रश्न १९९, जैनदर्शन में कर्म के कर्तृत्व- भोक्तृत्व का दोनों दृष्टियों से समाधान १९९, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का उपादानकारण नहीं हो सकता २००, प्रत्येक द्रव्य स्वभाव का कर्त्ता है, पर भाव का नहीं २०१, निश्चयदृष्टि से आत्मा पुद्गल (कर्म) समूह का कर्त्ता नहीं हो सकता २०१, कर्म ही कर्म का कर्त्ता : कैसे ? २०२, कर्म का स्वभाव आत्मा में आने का मानें तो सदा आत्मा में आता रहेगा २०३, जीव का कर्म करने का स्वभाव मानें तो कभी कर्म- मुक्ति नहीं २०३, पुरुष अकर्त्ता है, प्रकृति ही कर्त्री है, यह सांख्य-सिद्धान्त भी ठीक नहीं २०३, सब कुछ कर्ता-धर्ता - फलदाता ईश्वर है : यह मन्तव्य भी दोषयुक्त २०४, आत्मा सर्वथा अकर्त्ता है, जड़ कर्म ही सब कुछ करता है: यह एकान्त कर्म-कर्तृत्ववाद है २०४, एकान्त कर्म-कर्तृत्ववाद के अनुसार आत्मा को सर्वथा अकर्ता मानने में दोष २०५, सर्वथा अकर्त्ता होने की स्थिति में आत्मा मोक्ष का पुरुषार्थ भी नहीं कर सकेगा २०६, कर्म को कर्ता मानने से व्यक्ति कृत के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा २०६, आत्मा भेदविज्ञान होने से पूर्व तक कर्मों का कर्त्ता है, सर्वथा अकर्त्ता नहीं २०७, जैनदर्शन आत्मा को कथंचित् कर्त्ता, कथंचित् अकर्त्ता मानता है २०७, आत्मा को शुद्ध निश्चयदृष्टि से कर्म-पुद्गलों का कर्ता मानना मिथ्या २०८, शुद्ध निश्चयनय (पारमार्थिक) दृष्टि से आत्मा निज भावों का कर्त्ता है २०८, अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा भावकर्मों का कर्ता है, द्रव्यकर्मों का नहीं : क्यों और कैसे ? २०९, व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा द्रव्यकर्मों का कर्त्ता है २१०, आत्मा का स्वाभाविक और वैभाविक कर्तृत्व और भोक्तृत्व २१०, सांख्यदर्शन का पुरुष को अकर्त्ता और प्रकृति को भोक्ता मानना युक्ति-विरुद्ध है २१३, सांख्यदर्शन द्वारा कृत आक्षेप का निराकरण २१४, जो भोक्ता हो, वह कर्ता भी है : इस सिद्धान्त का मण्डन २१४, जैनदर्शन सांख्य की तरह उपचार से नहीं, वास्तविक रूप से आत्मा को भोक्ता मानता है २१४, उपचार से भोक्ता मानने का खण्डन २१५, कर्म का कर्तृत्व-भोक्तृत्व : एक शंका समाधान २१६, जड़-चेतन - मिश्रित संसारी कर्मबद्ध आत्मा से कर्म का सम्बन्ध है २१६, कर्मफलों को व्यक्तियों के जीवन में देखकर कर्मकर्त्ता का अनुमान २१७, कर्म के साथ कर्त्ता और फलभोक्ता परस्पर सम्बद्ध हैं २१८, आत्मा और पुद्गल दोनों अपने-अपने गुणों के कर्ता हैं, किन्तु निमित्तरूप से परिणमनकर्ता हैं २१८, कर्म का कर्ता होते हुए भी आत्मा कर्मरूप नहीं हो जाता २१९, आत्मा स्वयं ही कर्मकर्त्ता और स्वयं ही फलभोक्ता २१९, आत्मा ही कर्म का कर्त्ता और फलभोक्ता है २२०, आत्मा स्वयं ही कर्त्ता तथा कर्मों की फलोत्पादन शक्ति से स्वयं फलभोक्ता २२१, दुःख जीव के द्वारा प्रमाद के कारण किया गया है २२१, सुख-दुःख का कर्ता और विकर्ता आत्मा ही है २२१, जीव द्वारा कर्म करने से दुःख होता है, दुःखरूप फल भोगता है २२१, दुःख का उत्पादक तथा फलभोक्ता : स्वयं जीव ही २२२, कर्मबन्धन से बद्ध कर्मबन्ध निष्पादयिता-परिणामयिता ही कर्मभोक्ता है २२२, ईश्वर कर्मफल- प्रदाता नहीं है: क्यों और कैसे ? २२३, ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किस प्रयोजन से किया ? : एक अनुत्तरित प्रश्न २२३, ईश्वर द्वारा करुणा से प्रेरित होकर सृष्टिकर्तृत्व भी प्रत्यक्ष असिद्ध २२४, धार्मिक दृष्टिकोण से भी ईश्वरकर्तुत्व एवं फलदातृत्व असिद्ध है २२५, नैतिक दृष्टिकोण से भी ईश्वरकर्तृत्ववाद असंगत है २२६, फिर तो यंत्रमानववत् मानव भी कृतकर्म के प्रति उत्तरदायी नहीं रहेगा २२६. गीता में ईश्वरकर्तृत्ववाद के बदले आत्म-कर्तृत्ववाद का समर्थन २२७, पापकर्म में बलात् नियुक्त या प्रवृत्त करने वाला अपना भावकर्म ही २२७, भोगों के त्याग करने की असमर्थता : ब्रह्मदत्त चक्री के द्वारा २२८. प्रत्येक आत्मा कर्म करने में स्वतंत्र है २२९, नैतिक दृष्टि से आत्मा ही कृत का नैतिक जिम्मेदार है २२९, आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा स्वयं विकास करने में प्रभु है २३०, जैनदर्शन द्वारा आत्म-कर्तृत्ववाद ही अभीष्ट है, परमात्म-कर्तृत्ववाद नहीं २३०, तीनों कार्यों में ईश्वर की आवश्यकता नहीं २३०, सृष्टि का स्वयं उत्पाद-व्यय के रूप में परिणमन होता रहता है २३०, सृष्टि का नियंता भी ईश्वर आदि कोई नहीं २३१, सृष्टि का नियमन सार्वभौमिक नियमों द्वारा २३१, ईश्वर को नियंता मानने पर दोषापत्तियाँ २३१|
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