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________________ कर्मविज्ञानः प्रथम भाग खण्ड १, २,३ कुल पृष्ठ १ से ६२० तक प्रथम खण्ड : कर्म का अस्तित्व निबन्ध ११ पृष्ठ १ से २०६ तक (१) आत्मा का अस्तित्व : कर्म-अस्तित्व का परिचायक पृष्ठ ३ से ३४ तक आत्मा की विभाव दशा : कर्म के अस्तित्व की कारण ३, आत्मा किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं : इन्द्रभूति गौतम की शंका ६, I जीव प्रत्यक्ष नहीं ७, II अनुमान से भी जीव का अस्तित्व सिद्ध नहीं ७, III आगम-प्रमाण से भी जीव सिद्ध नहीं ७, IV उपमान-प्रमाण से भी जीव असिद्ध है ८, V अर्थापत्तिप्रमाण से भी आत्मा सिद्ध नहीं हो सकती ८, जैनदर्शन द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि ८, I प्रत्यक्ष से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि ८, II आत्मा प्रत्यक्ष भी है ९, III सर्वज्ञ को आत्मा प्रत्यक्ष है; छद्मस्थ को आंशिक प्रत्यक्ष ९, IV इन्द्रिय-प्रत्यक्ष न होने पर भी आत्मा का अभाव सिद्ध नहीं होता १0, V स्व-संवेदनप्रत्यक्ष १०, VI अहं-प्रत्यय से भी आत्मा प्रत्यक्ष ११, VII संशय रूप विज्ञान से आत्मा प्रत्यक्ष है ११, VIII संशयकर्ता भी जीव ही है ११, IX गुणों के प्रत्यक्ष से गुणी आत्मा प्रत्यक्ष १२, x विज्ञाता आत्मा ज्ञानरहित इन्द्रियों से भिन्न है १२, XI दूसरों के शरीर में आत्मा की सिद्धि १२, XII अनुमान-प्रमाण द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि १३, XIII संशय का विषय होने से आत्मा की सत्ता सिद्ध है १३, xiV विपर्यय और अनध्यवसाय द्वारा भी आत्मा की सिद्धि १३, XV आत्मा ही ज्ञाता, द्रष्टा, श्रोता, मन्ता आदि है; अचेतन पदार्थ नहीं १४, XVI संकलनात्मक ज्ञान करने वाली आत्मा है, इन्द्रियाँ नहीं १४, XVII ज्ञानरूप असाधारण गुण के कारण आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है १५. XVIII जहाँ आत्मा है, वहाँ ज्ञानरूप गुण न्यूनाधिक रूप में अवश्य रहता है १६, XIX सुषुप्ति अवस्था में भी ज्ञान एवं चैतन्य का अनुभव १६, XX व्युत्पत्तियुक्त शुद्ध पद होने से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध १७, XXI बाधक-प्रमाण के अभाव से आत्मा की अस्तित्व-सिद्धि १८, XXII प्राणापान कार्य द्वारा आत्मा की अस्तित्व-सिद्धि १८. XXIII शरीर का कर्ता होने से आत्मा सिद्ध है १८, XXIV शरीरादि के भोक्ता के रूप में आत्मा की अस्तित्व-सिद्धि १९, XXV आत्मा कथंचित् मूर्तादि रूप है १९, XXVI शरीरादि संघातों का स्वामी आत्मा है १९, XXVII करणरूप इन्द्रियों का अधिष्ठाता : आत्मा १९. XXVIII आदाता के रूप में आत्मा की सिद्धि २०, XXIX निषेध से आत्मा की सिद्धि २०. XXX अजीव के प्रतिपक्षी के रूप में जीव की सिद्धि २१, XXXI लोक-व्यवहार द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि २१, XXXII शरीर जीव का आश्रय है, स्वयं जीव नहीं २१, XXXIII पर्यायों द्वारा आत्म-द्रव्य की सिद्धि २२, XXXIV परलोकी के रूप में आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि २२. XXXV शरीर-रथ के सारथी के रूप में आत्मा की अस्तित्व-सिद्धि २२. XXXVI उपादानकारण के रूप में आत्मा की सिद्धि २३, XXXVII मन के प्रेरक के रूप में आत्म-तत्त्व की सिद्धि २३. XXXVIII आगम-प्रमाण से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि २३, XXXIX अर्थापत्ति प्रमाण से आत्मा की अस्तित्व-सिद्धि २३, विभिन्न दर्शनों में आत्म-अस्तित्व की सिद्धि २३, सांख्यदर्शन द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि २३, न्याय-वैशेषिकदर्शन में आत्मा की सिद्धि २४, मीमांसादर्शन में आत्मा की अस्तित्व-सिद्धि २४. अद्वैत-वेदान्तदर्शन द्वारा आत्मा की सिद्धि २४. चार्वाक आदि द्वारा आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व का निषेध २४, आत्मा के पृथक् स्वतंत्र अस्तित्व के सम्बन्ध में विवाद २५, अद्वैतवादी परम्परा भी आत्मा को प्रति व्यक्ति भिन्न नहीं मानती २६. स्वतंत्र आत्मवादियों की विचारणा २६, आत्मा के स्वतंत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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