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________________ * २५० * कर्मविज्ञान : भाग ९ * (१६) ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों का पूर्ण रूप से क्षय हो जाने से. उसे (चरमशरीरी को) केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हो जाता है। (१७) फिर उस चरमशरीरी को परम (अनन्त अव्याबाध) आत्म-सुख की प्राप्ति होती है।' भोगों का त्रिविध योगों से परित्याग करने पर ही वे उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं ____ 'भगवतीसूत्र' (श. ७, उ. ७) में केवली के लिए जैसे कहा गया है कि तपस्या या रोगादि से शरीर क्षीण और अशक्त होने के बावजूद तब तक उसे क्षीणभोगी को भोगत्यागी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उसका शरीर भोगों को भोगने में असमर्थ होने पर भी वह दुर्बल मानव अन्तिम अवस्था में जीता हुआ भी मन और वचन से भोगों को भोगने में समर्थ होता है, इसलिए क्षीणभोगी भी भोगत्यागी तभी कहलायेगा, जब वह मन-वचन-काया से भोगों का परित्याग कर देता है। ऐसा भोगी छद्मस्थ हो, अधोऽवधिक (नियत क्षेत्र का अवधिज्ञानी) हो या परमावधिक (परमावधिज्ञानी) हो, जो उसी भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त यावत् सर्वदुःखों का अन्त करने वाला, चरमशरीरी हो अथवा वैसी ही योग्यता वाला केवली हो, उनमें से छद्मस्थ को देवलोक-प्राप्ति, अधोऽवधिक को महानिर्जरा या महापर्यवसान की प्राप्ति एवं परमावधिज्ञानी चरमशरीरी या केवली चरमशरीरी को तभी वे उपलब्धियाँ प्राप्त होंगी, जब वे स्वाधीन या अस्वाधीन समस्त भोगों का मन-वचन-काया से परित्याग कर देंगे। परमावधिज्ञानी को अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान हो जाता है। तीर्थंकर केवली और प्रत्येकबुद्ध केवली आदि में अन्तर तीर्थंकर केवली और प्रत्येकबुद्ध केवली में केवलज्ञान की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है किन्तु तीर्थंकर केवली की यह विशेषता है कि पहले उनके तीर्थंकर नामगोत्रकर्म बँध जाता है, उसके पश्चात् अगर उनके द्वारा पहले ही नारकों या देवों में उत्पन्न होने का निकाचित बन्ध हो गया हो तो उन्हें उस गति में अवश्य जाना पड़ता है। जैसे श्रेणिक राजा ने सम्यक्त्व-ग्रहण करने से पूर्व ही नरक का आयुष्य बाँध लिया था। बाद में तीर्थंकर नामगोत्रकर्म वाँधने तथा क्षायिक सम्यक्त्वी होने के बावजूद भी उन्हें नरक में जाना पड़ा। 2. (क) धर्मबिन्दु, अ.८, सू. ४८४-४८६ (ख) जैनसिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ५, बोल ८८६ २. भगवतीसूत्र, श.७, उ.७, विवेचनयुक्त पाठ, सू. २०-२३ (आ. प्र. स. व्यावर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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