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________________ * मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान : क्या और कैसे-कैसे? * २४७ * ये विशेषण सामान्य केवली या तीर्थंकर केवली तक में घटित नहीं होते। सिद्ध केविलयों को अशरीरी नीरज, कृतार्थ, निष्कम्प, पूर्ण विशुद्ध आदि इसलिए कहा गया है कि जैसे अग्नि से जले हुए बीजों से अंकुरोत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही सिद्ध केवलियों के समस्त कर्मरूपी बीज केवलज्ञानरूपी अग्नि से भस्म हो चुके होते हैं, इसलिए फिर से उनकी (सर्वकर्मों की) उत्पत्ति नहीं होती। जन्म का कारण कर्म है और सिद्धों के समस्त कर्मों का समूल नाश हो चुका है। कर्मबीज के कारण हैंराग-द्वेष। सिद्धों के राग-द्वेष आदि समस्त विकारों का सर्वथा अभाव हो जाने से पुनः कर्म का वन्ध भी सम्भव नहीं है। सिद्ध केवलियों में रागादि वेदनीय कर्मों का सर्वथा अभाव होता है, क्योंकि वे शुक्लध्यानरूप अग्नि से पहले ही उन्हें भस्म कर चुकते हैं और उनके कारण संक्लेश भी सिद्धों में सम्भव नहीं है। रागादि वेदनीय कर्मों का अभाव होने से पुनः रागादि की उत्पत्ति की सम्भावना नहीं है। कर्मबन्ध के अभाव में पुनर्जन्म न होने के कारण सिद्ध सदैव सिद्धदशा में रहते हैं; क्योंकि रागादि वेदन का अभाव होने से आयु आदि कर्मों की भी पुनः उत्पत्ति नहीं होती, इस कारण सिद्ध केवलियों का पुनर्जन्म नहीं होता। । यों तो सामान्य केवली का भी मोक्षगमन निश्चित हो जाता है, उनके भी रागादि नष्ट हो जाते हैं, किन्तु सिद्धदशा की गारंटी हो जाने पर भी चार भवोपग्राही कर्म (अघातिकर्म) जब तक उनकी आत्मा से वियुक्त नहीं हो (छूट नहीं) जाते. तब तक वे पूर्ण मुक्त, सिद्ध नहीं हो पाते। ___ अन्तकृत् केवली और सामान्य केवली में अन्तर । यद्यपि अन्तकृत केवली और सामान्य केवली दोनों ही उसी भव में जन्म-मरण का, कर्मों का तथा सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं, किन्तु अन्तकृत् केवली की यह विशेषता है कि वे केवलज्ञान होने के पश्चात् तुरन्त ही सर्वकर्मों, सर्वदुःखों तथा जन्म-मरणादि का अन्त कर देते हैं, जबकि सामान्य केवली केवलज्ञान होने के बाद दीर्घकाल तक रहकर सर्वकर्म-दुःख-जन्म-मरणादि का अन्त करते हैं। यही अन्तकृत् केवली और सामान्य केवली में अन्तर है। . अन्तकृद्दशा (अंतगड़दसा) सूत्र में जिन ९0 महान् आत्माओं का वर्णन है, उन सभी ने केवलज्ञान होने के तुरन्त बाद ही सर्वकर्मों, दुःखों तथा जन्म-मरणादि का अन्त कर दिया था। इसलिए वे सभी अन्तकृत् केवली कहलाते हैं। 'भगवतीसूत्र' (श. १, उ. २), 'प्रज्ञापना' (२०वाँ पद) तथा स्थानांग' (स्था. ४) में जो अन्तःक्रिया करने वालों का वर्णन है। यानी कर्मों का सर्वथा अन्त करने वाली क्रिया अथवा जिस क्रिया के बाद फिर कभी दूसरी क्रिया न करमी पड़े, ऐसी मोक्ष-प्राप्ति १. प्रज्ञापनासूत्र, विवेचनयुक्त, पद ३६, सू. २१७६ (आ. प्र. समिति, ब्यावर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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