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________________ * परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २३५ * वाले) फल से रहित (अफल = सिर्फ कर्मक्षय के लिए) होता है। (इसी प्रकार) जो महाकुलोत्पन्न व्यक्ति प्रव्रजित होकर पूजा-सत्कार के लिए तप करते हैं, उनका तपरूप पराक्रम (वीर्य) भी शुद्ध नहीं है। जिस तप को अन्य व्यक्ति (दानादि में श्रद्धा रखने वाला या श्राद्ध = श्रावक आदि) न जानें, इस प्रकार से गुप्त तप आत्मार्थी को करना चाहिए और न ही अपने मुख से अपनी प्रशंसा करनी चाहिए। निष्कर्ष यह है कि सम्यग्दृष्टि जीवादि या संवर-निर्जरारूप धर्म के तत्त्वज्ञों द्वारा मोक्षरूप शुद्ध साध्य को लक्ष में रखकर किया गया पराक्रम (तप-संयमादि में किया गया पुरुषार्थ शुद्ध है, साधक सम्यग्दृष्टि होने से शुद्ध है, उसकी दृष्टि मोक्षलक्षी होने से साध्य भी शुद्ध और तप-संयमादि साधन भी शुद्ध हैं। इसलिए ऐसे व्यक्ति का साध्य, साधन और स्वयं साधक शुद्ध होने से उसका पराक्रम (उसकी तप-संयमादि में लगाई हुई शक्ति = वीर्य) भी शुद्ध है, वह पण्डितवीर्य का द्योतक है। इसके विपरीत जिसकी दृष्टि शुद्ध नहीं है, वह साधक भी शुद्ध नहीं, दृष्टि सांसारिक सुखभोगलक्षी होने से साध्य (मोक्ष) भी शुद्ध नहीं, ऐसी स्थिति में उसके द्वारा अंगीकृत तप-संयमादि साधन भी इहलोक-परलोकाशेषी, भोगाकांक्षालक्षी, संसारलक्षी होने से वे साधन भी अशुद्ध हैं। तीनों अशुद्ध होने से उसका तप-संयमादि में किया गया पराक्रम कर्मक्षयकारक न होने से संसारवर्द्धक है, मोक्षकारक नहीं। इसलिए उसकी शक्ति बालवीर्य की द्योतक है।' आत्मिक-शक्तियों के क्रमशः पूर्ण विकास का उपाय ___आत्मा असंख्यप्रदेशी है। उसके प्रत्येक प्रदेश में अनन्त वीर्य-अविभाग होते हैं। किन्तु प्रत्येक आत्मा में सारे के सारे वीर्यांश (अनन्त वीर्य-अविभाग) खुले नहीं होते। अर्थात् प्रत्येक आत्मा में सारी शक्तियाँ प्रकट एवं विकसित नहीं होती। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय प्राणी तक में न्यूनाधिक रूप में वीर्यांश खुले रहते हैं। मनुष्यों में भी अनन्त वीर्यांश के प्रकट होने में तारतम्य रहता है। वीर्यांतराय कर्म का जितना-जितना क्षय, क्षयोपशम या उपशम होता है, उतना वीर्य (शक्ति या पराक्रम) प्रकट होता है, बाकी का (कर्मों से) आवृत होता है। मन-वचन-काया जितने-जितने चंचल होते हैं, उतना-उतना प्रकम्पन अधिक होता है। प्रकम्पन १. जे याऽवुद्धा महाभागा, वीरा असम्मत्तदंसिणो। ___ असुद्धं तेसिं परकंतं. सफलं होइ सव्वसो॥२२॥ जे य वुद्धा महाभागा. वीरा सम्मत्तदंसिणो। सुद्धे तेसिं परकंतं. अफलं होइ सव्वसो॥२३॥ तेसि पि तवोऽसुद्धो, निखंता जे महाकुला। जे नेवऽन्ने वियाणति, न सिलोगं पवेदए॥२४॥ -सूत्रकृतांगसूत्र, विवेचन सहित, अ. ८, गा. २२-२४, पृ. २५२-२५३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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