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________________ * परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २१९ * बुराइयाँ पैदा होती हैं, वे सब शक्तियों के द्वारा ही होती हैं, भले ही वे पाशविक या राक्षसी शक्तियाँ हों। शक्तियों का नियोजन सही दिशा में हो तो समस्याओं, उलझनों, अनिष्टों आदि की बुराइयां - अच्छाइयों में परिवर्तित हो सकती हैं, होती हैं। पापी व्यक्तियों की जो शक्तियाँ पहले ध्वंसात्मक एवं संहारक घोर पाप कार्यों में लगी हुई होती हैं, वे रचनात्मक, रक्षात्मक एवं शान्तिपूर्ण कार्यों में लग सकती हैं। वही पापात्मा व्यक्ति धर्मात्मा हो सकता है, अध्यात्म का अवतार बन सकता है। प्रभव की शक्ति पहले चौर्यकर्म में लगी हुई थी, परन्तु जम्बू स्वामी के गृहस्थ-जीवन से प्रेरणा पाकर उन्होंने अपनी शक्तियों को आध्यात्मिक दिशा में मोड़ दिया। स्थूलभद्र की जो शक्ति पहले वेश्यासक्ति में लगी हुई थी, वही अन्तःप्रेरणा से आध्यात्मिक दिशा में नियोजित होकर ब्रह्मचर्य में सुदृढ़ हो गई । ' विपरीत दिशा में स्फुरायमाण वीर्य (शक्ति) अध्यात्म दिशा में स्फुरायमाण हो तो बेड़ा पार हो सकता है जैनजगत् में एक कहावत प्रसिद्ध है - "कम्मे सूरा, ते धम्मे सूरा।" इसका आशय यह है कि जो मानव कर्म बाँधने में शूरवीर है, शक्तिशाली है, वही मानव अगर अपनी शक्तियों को यथार्थ दिशा में नियोजित कर ले तो शुद्ध आत्म-धर्म के आचरण में शूरवीर होकर पूर्वबद्ध कर्मों को काटकर सर्वथा मुक्त, हो सकता है। कर्म बाँधने के समय में जैसे आत्मा का अनन्त वीच (विपरीत दिशा में ) स्फुरायमाण होकर प्रचुर कर्मों को बाँध सकता है, वैसे ही मानवात्मा में निहित विकसित चेतना (आत्मा) का अनन्त वीर्य (अध्यात्म दिशा में ) स्फुरायमाण हो यानी आत्मा के चतुर्गुणात्मक स्वभाव के पुरुषार्थ में स्फुरित = स्फुटित हो तो समस्त कर्मों का क्षय कर सकता है। आत्म-भाव-विरुद्ध प्रवृत्ति मार्ग में स्फुरायमाण वीर्य सातवीं नरक का मेहमान बना देता है, जबकि आत्म-स्वभाव में स्थिर रखने वाले निवृत्ति मार्ग में स्फुरायमाण होने वाला वीर्योल्लास परमात्मपद = मोक्ष की मंजिल पहुँच देता है। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने सिर्फ अन्तर्मुहूर्त्तभर में दोनों छोर की शक्तियाँ जगा ली थीं। पहले पर भावों और विभावों के प्रवाह में बहती चेतना ( आत्मा ) के असंख्यात प्रदेशों में विलसित वीर्य का इतने प्रबल वेग से स्फुरित किया कि सप्तम नरक के मेहमान बनने योग्य हो गए थे । किन्तु कुछ समय के पश्चात् उन्होंने वीर्य के प्रवाह की राह बदली । उनकी वृत्ति परभावों-विभावों से लौटकर पुनः स्वभाव के लक्ष्य में परिणत होने लगी । उसी आत्मिक वीर्य-शक्ति ने विभावों-परभावों से निवृत्ति ली और कर्मों का क्रमशः क्षय करते-करते कुछ क्षणों में समस्त घातिकर्मों का क्षय कर डाला। तत्पश्चात् वे अवशिष्ट चार १. (क) देखें - कल्पसूत्र सुबोधिका में प्रभव स्वामी का जीवन-वृत्त (ख) देखें- परिशिष्ट पर्व, सर्ग ८-९ में स्थूलिभद्र का जीवन-वृत्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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