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________________ * १९६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * सुख-दुःख देने वाला न तो सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ है, मनुष्य की अपनी तदनुरूप कल्पना ही होती है ___यह एक निश्चित तथ्य है कि मानव का आनन्द उसके स्वभाव में स्थित रहने में है, बाहर में या बाह्य इन्द्रिय विषयों में नहीं। वह एकमात्र उसके अन्तर में है, अतीन्द्रिय चैतन्य स्वभाव में स्थिर रहने में है। पर-पदार्थ, चाहे सजीव हो या निर्जीव अपने आप में कोई मनोज्ञ या अमनोज्ञ, सुखद या दुःखद नहीं होता, उसमें सुख-दुःख की, मनोज्ञ-अमनोज्ञ की, अनुकूल-प्रतिकूल की कल्पना करता है-मानव ही। जगत् के समस्त बाह्य पर-पदार्थों की अनुकूल-प्रतिकूल परिणति होती है, उसके साथ सुख या दुःख की कल्पना तुझे नहीं करनी है। उसके साथ तेरा कोई लेना-देना नहीं है। तू अपने दुःख में भी अकेला है और सुख में भी। तेरे निकट सर्वज्ञ परमात्मा बैठे हों, फिर भी वे तेरी परिणति को सुधार नहीं सकते। तू ही अपने पूर्वबद्ध कर्मों के उदय से प्राप्त दुःख या सुख में द्वेष या राग, अरुचि या आसक्ति न रखकर समभाव में-स्वभाव में लीन होकर ही कर्मनिर्जरा करके आत्मिक सुख-शान्ति या सन्तुष्टि प्राप्त कर सकता है। अनेक शत्रु या विरोधी तुझे घेर लें, तेरे मन के प्रतिकूल व्यवहार करें, तुझे बदनाम करें या तेरी निन्दा करें तो भी तेरी आत्मिक सुख-शान्ति को वे बिगाड़ या मिटा नहीं सकते। आत्म-स्वभाव के अवलम्बन के बिना बाहर से या दूसरे की ओर से कोई सुख-शान्ति प्राप्त होने वाली नहीं है और यह भी बात है कि आत्मा के स्वाधीन अनन्त सुख स्वभाव के अवलम्बन से अभिव्यक्त सुख-शान्ति को दूसरा कोई न तो छीन सकता है और न ही ध्वस्त या विकृत कर सकता है। 'समयसार' में कहा गया है-"जो जीव ऐसा मानता है कि मैं अपने द्वारा दूसरे जीवों को सुखी-दुःखी करता हूँ, वह मूढ़ है, अज्ञानी है। इसके विपरीत ज्ञानी पुरुष ऐसा मानते हैं कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे को सुखी या दुःखी नहीं कर सकता।' सुखी-दुःखी सभी जीव अपने-अपने कर्मों के उदय से होते हैं। अज्ञानी जीव बाहर से, बाह्य पदार्थों से सुख-शान्ति करने के भ्रम में रहता है। इस कारण वह इस भ्रम में रहता है कि अमुक वाह्य पदार्थ या दूसरा व्यक्ति मेरी सुख-शान्ति छीन लेगा या ध्वस्त कर देगा। परन्तु स्वाधीन आत्मिक सुख-शान्ति आत्मा का स्वभाव है, उसे न तो कोई दे-ले सकता है और न ही छीन या विकृत कर सकता है। पुण्य-पापकर्म (शुभ-अशुभ = साता-असातावेदनीय कर्म) से प्राप्त होने वाला या वाह्य संयोगों से होने वाला सुख-दुःख भी आत्मिक सुख-स्वभाव नहीं है। १. जो अप्पणा दु मण्णदि, दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेति। सो मूढो अण्णाणी, णाणी एत्तो दु विवरीदो॥ -समयसार, बंधाधिकार, गा. २५३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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