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* चतुर्गुणात्मक स्वभाव-स्थितिरूप परमात्मपद-प्राप्ति * १८७ *
प्रयत्नशील होता है। परभावों से सम्पर्क रखता हुआ भी वह उन्हें अपना नहीं मानता। न ही उन्हें आसक्तिपूर्वक अपनाने के लिए उत्सुक या लोलुप होता है। वह पर-पदार्थों के प्रति तटस्थ एवं उदासीन रहता है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में या इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोगों में हर्ष-शोक से दूर रहने का यथाशक्य प्रयत्न करता है।
दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के कारण सद्दर्शन न होना दर्शन का अर्थ सामान्य बोध है। सामान्य बोध भी आवृत, कुण्टिन और सुपुप्त हो जाता है-दर्शनावरणीय कर्म के उदय से। प्रत्येक आत्मा को परमात्मा की तरह जैसे अनन्त ज्ञान की शक्ति प्राप्त है, वैसे ही अनन्त दर्शन की शक्ति प्राप्त है। परन्तु दर्शन-स्वभाव पर आवरण, विकृति, कुण्ठा और अजागति आ जाने से सामान्य अवबोध भी नहीं होता। ज्ञानावरणीय कर्म की तरह दर्शनावरणीय कर्म के आस्रव
और बंध के भी भगवतीसूत्रोक्त छह कारण हैं-(१) दर्शन-प्रत्यनीकता से, (२) दर्शन का निह्नव करने (छिपाने) से, (३) दर्शन में अन्तराय डालने से, (४) दर्शन में दोष निकालने से, (५) दर्शन की अविनय-आशातना करने से, और (६) दर्शन में व्यर्थ का वाद-विवाद करने से। इन कारणों से अनन्त दर्शन की शक्ति होते हुए भी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती।' ___ इसी प्रकार 'तत्त्वार्थसूत्र' में भी दर्शनावरणीय कर्म के आस्रव और बन्ध के छह कारण बताये गए हैं
(१) प्रदोष-दर्शन, दर्शनी एवं दर्शन (सामान्य बोध) के जो साधन या उपकरण-करण हैं, उनके प्रति द्वेष या ईर्ष्याभाव रखना, दर्शन का तत्त्वज्ञान बताने वाले ग्रन्थों, शास्त्रों या दर्शनीपुरुषों की प्रशंसा न करना, अपितु उनमें दोष निकालना अथवा मोक्ष के कारणभूत तत्त्वज्ञान को सुनकर भी उसकी प्रशंसा न करना, अन्तर में दुष्ट भाव रखना प्रदोष है। भगवतीसूत्रानुसार दर्शनी के प्रति प्रत्यनीकता-विरोधीभाव-विद्वेषभाव या शत्रुभाव रखना दर्शन-प्रत्यनीकता है। ‘दर्शन-प्रदोष आगमों में चौथे नम्बर पर है।
(२) निह्नव-दर्शन, दर्शनबोधदाता, दर्शन (सामान्य बोधप्रदाता) गुरु का नाम छिपाना, ग्रन्थ का नाम छिपाना तथा वस्तुस्वरूप के ज्ञान या सामान्य बोध को छिपाना, जानते हुए भी कहना कि मैं नहीं जानता यह निह्नव है। भगवत्प्रतिपादित तत्त्वज्ञान का वास्तविक अर्थ छिपाकर विपरीत प्ररूपण करना।
१. (क) गोयमा ! 'नाणपडिणीययाए णाण-निण्हवणयाए णाणंतराए णाणप्पदोसेणं
णाणच्चासायणयाए णाणविसंवादणा-जोगेणं एवं जहा णाणावरणिज्जं नवरं दसणनाम घेत्तव्वं।
-भगवतीसूत्र, श. ८. उ. ९, सू. ७५-७६ (ख) तत्प्रदोष-निह्नव-मात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञान-दर्शनावरणयोः।।
__-तत्त्वार्थसूत्र, अ. ६, सू. ११
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