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________________ * १८२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * ज्ञाता-द्रष्टा, वीतरागी, ज्ञानादि स्वभाव से युक्त है। इस प्रकार अपने में ज्ञानमयता की दृढ़ प्रतीति करना। एक बार जहाँ ज्ञान-ज्योति जगी कि फिर उसे रोकने, बहकाने, भटकाने और बुझाने में जगत् में कोई भी पदार्थ समर्थ नहीं है। किसी भी पर-पदार्थ की, उसके गुण या पर्याय की शक्ति नहीं है कि ज्ञान-स्वभाव में जाग्रत हुई आत्मा पर तीन काल तथा तीन लोक में आवरण डाल दे, उसके मार्ग में रुकावट कर दे, उसे कुण्ठित, सुषुप्त कर दे या उसे दबा दे। आत्मा के ज्ञानादि स्वभाव का निर्णय करके उसमें एकाग्र होने की प्रेरणा अतः सर्वप्रथम मुमुक्षु सम्यग्दृष्टि साधक को निजतत्त्व का-अपनी आत्मा के ज्ञानादि स्वभाव का निर्णय करके उसमें एकाग्र होना चाहिए। 'समयसार' में इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है-“अधिकांश व्यक्ति जो आत्मा को ज्ञानगुण से रहित मानते हैं, वे ज्ञान-स्वरूप (शुद्धात्मपद या परमात्मपद) को प्राप्त नहीं कर सकते। अतः हे भव्य ! यदि तू कर्म से सर्वथा मुक्त होना चाहता है तो आत्मा के साथ नियत एकरूप ज्ञान-स्वभाव को ग्रहण कर, इसी का अवलम्बन ले।" 'आचारांगसूत्र' में भी ज्ञानादिमय आत्मा को जानने का बहुत बड़ा लाभ बताते हुए कहा गया है-"जो एकमात्र एक (आत्मा या ज्ञानादिमय आत्म-स्वभाव) को जान लेता है, वह सब पदार्थों का स्वरूप जान लेता है। अतः यदि किसी मुमुक्षु सम्यग्दृष्टि साधक को लौकिक या भौतिक ज्ञान, अक्षरीय ज्ञान या भाषा ज्ञान न हो, अधिक शिक्षण भी प्राप्त न हो तो कोई खेद न करे, तथैव व्यावहारिक, भौतिक, लौकिक अथवा आध्यात्मिक ज्ञान भी अधिक हो तो उसका अहंकार न करे, एकमात्र अटल निश्चय करे कि मैं ज्ञान-स्वभाव हूँ। मुझे सर्वप्रथम उसी ज्ञान-स्वभाव का अवलम्बन लेना चाहिए। सम्यग्दृष्टि आत्मा रागादि से या कर्ममल से मलिन आत्मा को भेदविज्ञानरूपी फिटकरी से पृथक् कर लेता है ___ जो व्यक्ति मिथ्यादृष्टि या अज्ञानी है, वह आत्मा के मूल शुद्ध स्वभाव एवं ज्ञान-स्वभाव को न जानकर कर्ममल से अशुद्ध आत्मा को वास्तविक समझता है तथा आत्मा को रागी-द्वेषी एवं विकारी मानकर एवं उसे (निश्चयदृष्टि से) पुण्य-पाप का कर्ता मानता है। इस प्रकार की मान्यता वाले विविध मूढ़ता-सम्पन्न १. देखें-समयसार, गा. २०५ का गुजराती पद्यानुवाद वहुलोक ज्ञानगुणेरहित. आपद नहीं पामी शके। रे ! ग्रहण कर तुं नियत आ, जो कर्म-मोक्षेच्छा तने ।। २. जे एगं जाणइ. से सव्वं जाणइ। -आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ३, उ. ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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