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________________ * चतुर्गुणात्मक स्वभाव- स्थितिरूप परमात्मपद - प्राप्ति * १८१ * ज्ञान-स्वभाव में स्थिरता के अभ्यासी के लिए विचारणीय बिन्दु आत्मा के ज्ञान-स्वभाव में स्थिर रहने का सतत अभ्यास, उत्साह और प्रयत्न करने वाला साधक यही सोचता है कि मेरा जीव अज्ञानभाव से अनन्त बार नरक में गया, स्वर्ग में भी गया, आत्मा के साथ पुण्य-पाप की अभिन्नता की मिथ्या मान्यता के कारण अनन्त काल तक मैं चारों गतियों में भटका । किन्तु अब जब यह सम्यग्ज्ञान की ज्योति प्रकट हुई, मैं अपने ज्ञान -स्वभाव में स्थिर रहने लगा। तब से चारों गतियों के कारणभूत रागादि विभावों ( भावकर्मों तथा तज्जनित द्रव्यकर्मों) का निरोध करने लगा, साथ ही पूर्वबद्ध शुभाशुभ कर्मों के शुभ-अशुभ फल को भी समभावपूर्वक शान्ति से भोगकर क्षय करने लगा। इस प्रकार आत्मा के अभिन्न गुणात्मक ज्ञान -स्वभाव में स्थिरता के कारण चारों गतियों में परिभ्रमण तो रुका ही, आंशिक रूप से मुक्ति की पर्याय प्रगट हुई। इसी विशुद्ध दृष्टि ने अज्ञानान्धकार नष्ट किया। ज्ञान-ज्योति प्रकट हुई। ज्ञान-स्वभाव में एक बार स्थिर हो जाने पर फिर अनावृत होकर ज्ञान सदैव प्रकाशमान रहता है इस प्रकार यदि एक बार भी आत्मा ज्ञान - स्वभाव में स्थिर हो जाए, अर्थात् यह निश्चय कॅर ले कि मेरी आत्मा विशुद्ध चिदानन्द-स्वरूप है। मैं ज्ञान-स्वरूप ही हूँ । रागादि - कषायादि मेरे नहीं हैं और न वे मेरे में रहते हैं । पर्याय में रागादि रहते हैं, वे मेरे स्वरूप में नहीं हैं। मेरा ज्ञान रागादि के साथ एकमेक नहीं हो जाता। इस प्रकार रागादि और ज्ञान की भिन्नता को जान-समझकर ज्ञान - स्वभाव में स्थिर हो जाए तो पूर्वबद्ध कर्म टूटते, मोहादि छूटते और ज्ञानादि के आवरण हटते देर नहीं लगती । जब आत्मा में ज्ञान - स्वभाव प्रगट हो जाता है, तब रागादि नहीं रहते (या अत्यन्त मंद हो जाते हैं) और रागादि के फलस्वरूप जो बन्ध होता है वह भी रहता नहीं; न ही ज्ञानादि को आवृत करने वाला कोई विकारभाव रहता है। ऐसी स्थिति में शुद्ध ज्ञान फिर सदैव प्रकाशमान रहता है। Jain Education International एक बार ज्ञान- ज्योति सुसज्ज होकर निकलने पर केवलज्ञान - समुद्र में अवश्य मिलती है निष्कर्ष यह है कि एक बार यदि ज्ञान - ज्योति भलीभाँति सुस्थिर और सुसज्ज होकर प्रगट हो जाए तो उसकी अखण्ड धारा केवलज्ञान तक अवश्य पहुँच जाती है। जैसे नदी एक वार समुद्र में मिल ही जाती है, उसी प्रकार एक बार सम्यग्दृष्टि से सुसज्जित होकर आत्मा के ज्ञानमय स्वभाव की ज्योति निकल पड़ती है तो अनेक गुणस्थानों को उत्तरोत्तर पार करती हुई अन्त में केवलज्ञान (अनन्त ज्ञान ) रूपी समुद्र में मिल जाती है। ज्ञान - ज्योति के सुसज्ज होने का अर्थ है- मेरी आत्मा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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