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________________ * १७० * कर्मविज्ञान : भाग ९ * “चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा सागरवरगंभीरा सिद्धा ।" -सिद्ध-परमात्मा चन्द्रों से भी अधिक निर्मलतर (निष्कलंक = शुद्ध) हैं, आदित्यों (सूर्यो) से भी अधिक प्रकाशमान (तेजस्वी) हैं और श्रेष्ठ समुद्र से अधिक गम्भीर (गहन) हैं। परमात्मा के इन महिमा-गरिमासूचक विशेषणों से उनके अनन्त चतुष्टयात्मक स्वभाव का परिचय प्रतिफलित होता है। आशय यह है कि परमात्मा में अनन्त ज्ञान-सूर्य की तेजस्वी रश्मियाँ प्रकाशमान होती हैं, तथैव अनन्त दर्शनरूपी चन्द्र की भी उज्ज्वल, शीतल एवं निर्मलतम किरणें प्रस्फुटित होती हैं। इसी प्रकार अनन्त चारित्र का स्वभाव-रमणतारूप निर्मलतर जल अगाध अव्याबांध अव्याकुल आत्मिक सुखसिन्धु के रूप में लहराता है। अनन्त आत्मिक दानादि लब्धिपंचक की तेजस्वी अक्षय शक्ति का कोष विद्यमान रहता है। यही बात सामान्य (शुद्ध) आत्मा के लिये कही जा सकती है। निश्चयदृष्टि से विशुद्ध आत्मा को परमात्मा में निहित अनन्त ज्ञानादि सूर्य-चन्द्र-सिन्धु सम प्रखर, तेजस्वी, निर्मलतर एवं गहन आत्मिक सुख-सिन्धु से परिपूर्ण तथा अनन्त अक्षय शक्ति का कोष कहा गया है। वह भी अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्ति से परिपूर्ण विकासमान है।' अनन्त चतुष्टयात्मक स्वभाव पर आवरण क्यों और कैसे हो ? प्रश्न यह है कि परमात्मा के समान अनन्त चतुष्टयरूप गुणात्मक स्वभाव वाले सामान्य जीव (आत्मा) पर आवरण क्यों आया हुआ है ? इसका एक समाधान तो यह है कि जिस प्रकार प्रखर प्रकाशमान सूर्य बादलों से आच्छादित हो जाता है तो उसका असीम आतप और प्रकाश शीतल और धुंधला हो जाता है, उसकी असीम तेजस्वितापूर्ण शक्ति भी मन्द पड़ जाती है, किन्तु बादलों के हटते ही वह सूर्य पुनः जाज्वल्यमान प्रकाश और आतप के साथ अतिशय प्रकाशमान तेजस्वी, प्रखर शक्तिमान एवं सर्वांग रूप से विकसित हो उठता है। इसी प्रकार सामान्य आत्मा पर भी विभावों, परभावों और कर्मों का आवरण आ जाने से उसकी तेजस्विता, शक्तिमत्ता और अनन्त ज्ञानादि गुणात्मक स्वभाव आवृत, कुण्ठित और मन्द हो गया है। ज्यों ही कोई स्वभावनिष्ठ आत्मा इन परभावों, विभावों, कर्मों आदि के आवरण को ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की साधना से हटा देता है, त्यों ही वह आत्मा पुनः अपने अनन्त चतुष्टयरूप गुणात्मक स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। सामान्य आत्मा का स्वभाव-सूर्य, परभावरूपी राहु और विभावरूपी केतु द्वारा ग्रसित है ___मगर आज अधिकांश प्राणी ही नहीं, अधिकांश मानवों की आत्माएँ अपने पूर्वोक्त अनन्त चतुष्टयरूप शुद्ध स्वभाव की शक्ति को अनावृत या अभिव्यक्त करने १. आवश्यकसूत्रगत चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) का पाठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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